[५१] 13 निज छाती ॥ यह कौतुक बिलोकि सुनु सजनी माला दीपक की चित चाती। सूरदास बल जात टुहुन की लिपि लिपि हृदय कथा चित पाती ॥ ५० ॥ri उक्ति सपी की सपी से हे सषी आज राधा. मदनमद ते माती है सुंदर स्याम के संग जो कोट में काम के कलनि की थाती जोरी रही सो परचत है अंतरिछ अधर श्रीबंधु सुधा हरि लेत है तैसहूं आप लेत है ग्रीषम पवन को नाम लपट है जैसे हरि लपटत है तैसही आप लपटत हे सजनी ये कौतुक देष को दीपमाला चाहत है सूर बल जाहु दुहुन की प्रेम पाती लिपि लेत हृदय में या पद में मद संचारी मालादीपक अलं- कार ताको लच्छन । दोहा-मोह जो अति आनंद ते, मद कहियत है सोइ । दीपक एकावलि मिलत, मालादीषक होइ ॥१॥५॥ को देषिआज बृषभानदुलारी। दिनपति- सुतनाता पितपितुजा पति सुतसुत- प्रिय पित हितकारी ॥ सत्रु प्रिया करि महा थकित हो रही समारन अंग बिचारी। नीकन अधिक दिपत दुत ताते अंतरिछ छबि भारी ॥ मेघन पाट नषा- जातिक नष डारत तीन लोक छवि बारी। भूषन सारसूर श्रम सीकर सोभा उडत अमल उजियारी ॥ ५१ ॥
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