पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/४६

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[ ४५. । मनुज गिरा रस आदि बरन जा केरो। सुतबाहन सिर धरे आप सच निज कर सम निरबेरो॥ नीरदेव वो कोपसहित कर पूरब रीत बसेरो । भूसुतत्रिय तलफत सफरी भी वार हीन तन हेरो। सूरज चितै नोच जल ऊंचो लयो बिचित्र बसेरो॥४२॥ उक्त अनुराग पूर्व बंसीवट के निकट आज मैं ने नेक स्याम को मुष निरपे है (हेरो) नटनागर के पट में (पै) तबते मेरोमन लटको है सिवरिपुतिया तुलसी घट हीन मनुज नर गिरा रस इनको आदि बरन ते (लेत)तुहीनगिर जा पारवती सुत स्यामकार्तिक बाहन मोर के पछ सिर पर धरें है नीर नाम बा देव सुर कोपरीस आदि बरण ते वासुरी सो बजावत है भूसुत मंगल ते तीसरो वृहसपत नाम जीव सो तलफत मछरी की रीत तें ऐसे के नीचे जल में पारछाहीं न देष तन ऊंचै चढ गयो यह विचित्रता देष यामें पूर्वा अनुराग में विचित्र अलंकार है नीचै चितवत ऊंचो होइ तौ लच्छन । दोहा-इच्छा फल बिपरीत ते, कीजै जतन विचित्र । । अरु मोन उपमान की तरह तें जीव तरफरात ताते दिष्टांत है परंतु कवि अभिप्राइ विचित्र में है ॥ ४२ ॥ की मोहन मो मन बसि गौ माई। को जाने कुलकान कहां है मात तात ग्रह भाई॥ ज्यौं सारंग सारंग के कारन सारंग सहतन डोले । रंभापति सुत सत्रु पिता ज्यौं नय अहि अंत न तोले॥ तन पै नीत