[१२] परे जोबन मद्द नाहौरहन पावत मीन॥ अष्टसुर इन को पठाए कंस नृप के बास । तिपी पीपल माझ कीनी निपट जीव निरास। कलहनीपति पिता पुत्री तकत बनत न आज॥ कौन जानत रहे यह बिनु संभवन को काज । आइहै कै कहो सजनी सकल मोहि जनाडू । सूर समुझे गमन पति को करत सुरत सुभाइ॥३८॥ उक्ति नायका कै (की) हे सषी अब रथ की धूर नाही देषि परत सजीवन मूर वृज की दूर पहुंचे भूमिसुत अंकूर याकी करनी आदि ते हीन (करते) क्रूर (रहत) परे जो वन कहे जाल मधि मलाह को अत्र कहे जाल बंसी तासों मीन जल में नहीं बचत अष्टसुर बसुदेव इन को पठाए हैं ति पीपी नाम छपी छपी कहे गोपी जीवनिरास पल में कर दई कलहनीपति सनी पिता सूर्य पुत्री जमुना देपत नाहीं बनत यह कवन जानत रहे बिनु संभावन को काजे अब कब आइहै सूरपति गमन समुझे सुरत कर कर यामें असं- भव अलंकार परवस्तक पतिका नाइका लच्छन। दोहा-कहै असंभौ हेत जहँ, बिन संभावन काज । गमन सुरतिपति को वहै, होत प्रवस्तक साज ॥ १ ॥३०॥ बन ते आज नंदकिसोर । अली आवत करत मुरली को महाघन घोर॥ द्रगन कछु करत बातें मोह ते दिन अंत । जंगमन ते सुर मुनावत सरल . सुषमा वंत ॥ देष हुलसत होय सब के
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