[४१] सूरदास के समय संवत् १६४ ० और जसवन्त सिंह का समय संवत् १८५५ है और इन दोनों का अंतर २१५ वर्ष का है । और जब भाषाभूषण का उदाहरण टीका में दिया है तो किसी प्रकार से सूरदास रचित यह टीका वहीं हो सकता है। तात तात पै जात अकेली। दती समूह दिवसंपतिनंदन संग न सरुच सहेली ॥ उरज अनूप उठे चारो दिस सिवसुतबाहन षाद। संभू मैन समारो डोलत पग पग पग रिपु स्वाद ॥ तदिप न डरत कूल कालिंदी धारो औ चित मांझ । सूरस्याम संग बिसेषोक्त कहि आई अवसर सांभ॥३७॥ उक्ति पूर्व । तात नंद के नंद पह जात है समूह रास दुती वष दिवस- पति भान वृषभाननंदिनी उरज पयोधर मेघ चारो दिसि उठे हैं शिवसुत वाहन मोर पाद सर्प संभु सैना प्रेत पगरिपुकंटक डग डग में है तदपि नाहीं डरत है कूल कालिन्दी में (पै अरु) विसषोक्त अलंकार अभिसारिकानायका है रोकबे के हेत प्रेतादि है कारन सो कारज न कर सके लच्छन । दोहा-बिसेषोक्ति जब हेत ते, कारज उपजै नाहि । प्रीतम पै अभिसारिका, जात बुलावत माहि ॥ १ ॥३७॥ अब रथ देष परत न धूर । दर बडि गो स्याम सुंदर वृज सजीवन मूर काभमि- सुत की देष करनी आदि ते कर हान्न।
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