[३९] हरिश्चंद जी ने इस को प्रकाश करने केलिये मुझे दिया था और इस पर बहुत कुछ लिखना चाहते थे परंतु अत्यंत शोच की बात है कि उन के समय में प्रकाश न हुई। । सरदार कवि ने सूरसागर के टीका के आदि में यह लिखा है। _ 'बंदो अंजनी के पाय । नासु उर गिर उदय हनुमत भयो दिन मन आय । कोक सुरवर सोक नासक कोकनद से संत ॥ थोक सुष बिन ओक प्रफुलित जर्नु बिचार बसंत । दोष दोषा दलन दुषतम दुसह दारुन रूप. ॥ अघट अघ के ओघ उलू अंध अंध अनूप । बालषिल्ल मुनीस नारद करत जैजै कार ॥ रामसीताचरन चित नि त बसो कवि सरदार ॥१॥ _ भाषी भालु भाल बिसाल । को न गुन गनि में न साधो आपु अंजनिलाल ॥ रुद्र रूप अनूप मर्कट कियो कारन जोन । आजु साज समाज मध्ये ताक कीजे तोन ॥ बार सत हित गहत नासो सर्ब सुरपति रोस । बर अजादिक आप देदै कियो तात सहोस ॥ राम हित मित सिंधु लाँघत लगत नाहीं बार । सुनत सुब- रन नाग दूजो प्रभु भयो सरदार ॥ २ ॥ सोरठा-कासीनाथ उदार, उदत उदितनन्द है । ताको सरन बिचार, रहत सदा सरदार कपि ॥ ३ ॥ और ग्रंथ के अंत में भी तीन दोहा सरदार कवि ने लिखा है। 'दोहा-मतन मतन तें सूर कवि, सागर कियो उदार । बहुत जतन तें मथन करि, रतन लहे सरदार ॥१॥ तिन पर सुचि टीका रची, सुजन जानिबे हेतु। मनुसागर के तरन कों, सुंदर सोभा सेतु ॥२॥ संबत वेद सुसुन ग्रह, ओ आतमा बिचार । कातिक सुदि एकादसी, समुझि श्रुद्ध बर बार ॥३॥' अब यह बात बिचारने की है कि यह टीका सूरदास का लिखा है अथवा नहीं तो मैं यह अनुमान करता हूं कि सूरदास का लिखा नहीं है क्योंकि इस भजन के अर्थ में भाषाभूषण का प्रमाण दिया है । तो भाषाभूषण के कर्ता सूरसागर के कर्ता के बहुत पश्चात् हुए हैं फिर सूरसागर का टीका सूरदास का लिखा है यह बात असंगत है । क्योंकि सूरदास का समय इसी ग्रंथ के उपसंहार में वा चरितावली देखने से भलीभांति मालूम हो जायगा । और भाषाभूषण के कर्ता का समय शिवसिंहसरोज में यों लिखा है।
पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/४०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।