पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/३७

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। ३६ फिर फिर उझकि झांकत बाल । बन्हि रिपु की उमड देषत करत कोटिन ष्याल ॥ भछ बिध के षरक फरकत अच्छु चारो ओर । केस ओर निहार फिर फिर तकत उरज कठोर ॥ हौं कहत ना जाउ उतका नंदनंदन बेग । सूर कर आछप राषो आज के दिन नेग ॥३४॥ उक्ति सपी की बाबाल हर हर बेर (तुम को) झांकत है वन्हि रिपु मेघ की उमंड देषत है बहुत प्याल करि के बिध नाम अज अजा भष पाती ताके परकत नेत्र चारो ओर चमकावत है केस नाम बार बार नाम दरवाजा की ओर निहारत है फेर देवत है नीचे मैं नाहीं कहत की (तुम) जाहु बेग उन आज के दिन का नेग आछेपक कर राषे है उतका आछेप पद असलेष है यामें नायका राह देषत याते उतका सषी कहि रोकत तातें आछेप अलंकार लच्छन । राह निहारै पीय की उतका सोय । कहत रोक आछेपा भूषन सोइ ॥१॥ टुरद मूल के आदि राधिका बैठी करत सिंगार । दधिसुतसुतसुतसुत अरिभषमुष करे बिमुष दुष भार ॥ जल- चर जा सुत सुत सम नासा धरे अना- सा हार । वानरहितजापति पतिनी से बांधे बार अबार ॥ सारंगसुत नीकन