विपरीत कहै उलटी । पगपति कृष्ण ताको व्यास ऊधो की बचन कोकिल सम हई । षगपति व्यास कहे काग भसुंड अर्थ काग । भूसुत मंगल कहे अनंद शत्रु अमंगल । दीपति कहे सोभा पंथ कहे राह ते राहु ग्रह ताको शत्रु सूर्य पति विष्णु सुत परदुमन ताको नाम पंचसर सुधार सुधारि सर तन में सूल से करे है। शिवसुत स्यामकारतिक ताको बाहन मोर ताको शत्रु सर्प ताको भोग पवन ताके सुत हनुमान ताके शत्रु सूर्य ता भष दिन कहे दीन बान लई । बा कहे जल जा कहे लक्ष्मी पति विष्णु बाहन गरुड ताकी सेना पछी ये उदीपमान:पछी है सो जहरमई बोलत है । सूरकवि सूरवरी पंडिताई कुबजा कर रई कृष्ण । सूरबरी नाम पंडिताई तहां ले जाहु जहां कुबजा कर कृष्ण के पास रमे है। तात्पर्य की हमारी विरह दसा की कथा लेई जाव तो तुम्हारी सूरवरी कहै बीरताई है ॥ ३१॥ टिप्पणी-इस पद के अर्थ और मूळ में सरदार कवि ने कुछ घटाया बढ़ाया है उसे नीचे प्रकाश किया जाता है। नंदनंदन बिन वृज में ऊधो सब बिपरीत भई । षगपति व्यास बचन सम कोकिल बोलत जहर मई ॥ भूसुतसत्रु गेह में काहू दिपत दवार दई । पंथ सत्रु पति सुत सुधार सर करि तन सूल सई ॥ सिवसुतबाहन सत्रु भोग सुत रिपु भष बान लई । बाजापतिबाहन की सोभा बोलत जहर मई ॥ अब की बेर मिळावहु बृजपति जीवन मर जई । सूर बहुत परजाइ दीन हर कुबजा कर हई ॥१०॥ ____ नंदनंदन इति । ऊक्त गोपी की ऊधो प्रत । के हे ऊधो बृज में सब विप- रीत भई है । षगपति व्यास काग समान कोकिल बोलत है । भूसुत कवाच सत्रु बानर गेह बृछन मे काहू दमार दई है । पंथ सत्रु जमुना पति कृष्ण सुत काम सूल सई करत है। सिवसुत गनेस बाहन मूसा सत्रु बिलाई भष दधि नाम समुद्र सुत चंद्रमा रिपु राहु भष सूर्य की बान कई है। बा जल जा लछमी पति विष्णु बाहन गरुड़ सेना पछी जहर से बोलत है । तातें अब की बेर मिलावहु बृज पति जीवन मर । सूर कहत जामें परजाइ अलंकार दीनता संचारी है ताको लछन । द्वै परजाइ अनेक के क्रम में आथाय एक ॥ दीन बेचन तें दीनता जानत सुकबि बिबेवक ।। ५० ॥ पिय बिनु बहत बैरिन बाय । मदन
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