[ २] 'श्री राधे कियो कौन सुभाव । प्रानपति बेदन बिभूषित सुन्यगुन चित चाव ॥ मानसरवासी सुधाग्रह तें न निकसन पाव । रजनिचरगुन जान दधिसुतधरन रिपुहित पाव ॥ रजनिचरहित भच्छ सो तन दिपत दीपक आव । सूरदास सुजान् सुकिया अघट उपमा गाव ॥ १ ॥ राधे इति । सखी बचन राधा प्रति । वेदन श्रवन में परत । सुन आकास गुन शब्द ।-मानसरबासी हास सुधाग्रह अधर में रहत। रजनिचरगुन कोप ।। दधिसुतधरनरिपु काम नानत । रजनिचरहित सिंव भक्षन कनिक । सुवरन सो तन दिपत में पूरन उपमा । खकिया नाइका। भदवर (जिला शाहाबाद परगने भोजपुर) के ताळुकेदार बाबू परमेश्वर सिंह इस पद का एक दूसरे अर्थ करते हैं वह रजनिचर का अर्थ चंद्रमा करते हैं और चंद्रमा का हित शिव और उन का भक्षण धतूरा और धतूरा को कनका कहते हैं। और इस अर्थ की पुष्टता निम्न लिखित रीति से करते हैं। चन्दनराम कवि कृत अनेकार्थ में लिखा है । दोहा-बिधुमित हरि हर सिंधु रबि, बिधुमित रतन चकोर । निशिचर उडगन चन्द्रमा, निशिचर राछस चोर ॥ १ ॥ अब रजनिचर और निशिचर का एक अर्थ है इस युक्ति मे राक्षस का अर्थ चन्द्रमा हो गया फिर और बातों में तुल्यता ही रही। कनक का अर्थ कोत्र में यों लिखा है । कनक ( ; कन् चाहना वा चमकना ) पु० सोना, कंचन, सुवर्ण, स्वर्ण, धतूरा । रस कौमुदी में लिखा है। दोहा-कनक कनक ते सौ गुनो, मादकता अधिकाय । वा खाये बौरात नर, या पाये बौराय ॥ १ ॥ घ० क०-एक तें सरस एक जग में अनेक मद या गुन सबही ते मूतन लखात है ।। रसिकबिहारी रीत न्यारी या निहारी परै समुझे बनै सों कछु बरनी न जात है। कनक कनकहू ते मादकता सौ गुनी है अमल अनूप सो सदाहीं अधिकात है। वाको जब खाय नर तबहीं सु बौरा होय याके ढिग आये पाये नेक में बिहाल है ॥१॥ हरि उर पलक धारो धीर । हित तिहारे करत मनसिज सकल सोभा तीर॥ भूमिसुतअरिमित्ररिपुपुरते निका-
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