पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१७३

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दोहा-पालहिं जन समान कछु , सुत सनेह बस तोहि । आन सक बांधव सुहृद , सो न करहिं हित कोइ ॥१॥ चौपाई। केवल जननि करहिं तुव सेवा । अस कहि बदन भक्त द्रुम देवा । भए विराम कृष्ण धन बरना । तब प्रनाम करि जादव चरना ॥१॥ कलि संध्या कर अंत प्रवीना । सोचन लग्यो भक्ति मन लीना।

  • सो जब समय आव नियराना । तजिं बिकुंठ जादव गुन खाना ॥२॥

मथुरा प्रांत विप्र वर गेहा । भा उतपन्न भक्त हरि नेहा । जनम अंध दृग ज्योति विहीना । जननी जनक कछु हरख न कीना ॥२॥ रहे मोन बांधव समुदाई । करहिं प्रीति केवल इक माई । अष्ट बरष कर जानि सुहावा । जज्ञोपवीत जनक तब पावा ॥४॥ भयो प्रसिद्ध नगर अभिरामा । सूरदास ताकर अस नामा । अवसर एक मातु पितु संगा । आन लोक पुर प्रेम उमंगा ॥५॥ कृष्ण जनम पुरि दरसन लागी । आए सकल सदन निज त्यागी । करि जात्रा बिधिवत अनुरागे । जब निज सदन चलन सब लागे ॥६॥ सूरदास तब कहत उचारी । मै अब इहां सदन नगधारी । कछुदिन करहुं ललित निजबासा । कृष्ण प्रसाद बिगत स्रम त्रासा ॥७॥ सुव निज गवहुं सदन सुभ काहीं । चिंता मोर करहु कछु नाहीं । सुनि अस जननि जनक तहि बानी। सुत सनेह निज मानस बानी ॥८॥ रुदन करत अस बचन उचारे । बसत अंध दृग जुगल तुमारे । करहिं कवन भोजन पट दाना । सिसु निदान तुब देस बिराना ॥९॥ कस तजि जाहि सुवन पितु माता । काहु न देखि परत तुव त्राता। सुनि अस जननि जनक मुख बानी। कृष्ण भरोस सूर जीय मानी ॥१०॥ दोहा-बोल्यो अभय प्रसन्न मन , बदन बचन सुख दान । तुव जिय करहु न सोच कछु , मोहि बदेस अस जान ॥१॥ . चौपाई। मोरे कृष्ण देव भगवाना । करन हार कल पालन लाना। अंध दीन बल हीनन कोही । पोषन करत दैव प्रभु सोहीं ॥१॥ सरन चरन दुख हरन करीके । परे कोटि अस मोर सरीके । दीनबंधु जन दीन न पाला । दीननाथ प्रभु दीनदयाला ॥२॥ दीनहरन भय दीन उबारन । दीन सुषद दुख दीन निवारन ।