पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१६७

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[ १६६ ] सोपद बिरच्यो कृष्णही , जानि लेहु सव कोय ॥३॥ महा घोर कलिकाल महं , जनम लेव दुष दूर । इंग बिकार गुनि याहिते , सरदास मे सूर ॥४॥ चौपाई। जन्महि ते है नैन वीहीना । दिव्य दृष्टि देपहि सुष भीना ॥१॥ लीन परिच्छा सो तेही नारी । एक समै अस बचन उचारी ॥२॥ पिय मोहि सकल ग्रामकी वामा । मोसो कहर्हि बच्न असि बामा ॥३॥ तूं केहि देषन करहि सिंगारा । तेरो पति तो अंध अपारा ॥४॥ सुनि के सर कही यह बानी । आजु सिंगार भली विधठानी ॥६॥ बहु इस्त्रीन को लै निज संगा । बैठहु आइ ईहां सउमंगा ॥६॥ भूपन तुव विगरो जो होई । दैहै हम बताइ सत सोई॥७॥ सूनि यह सूरदास की नारी । सब भूषन निज अंग सँवारी ॥८॥ बेंदी देत भये. नही भाला । सूर बोलायो ढिग तव बाला ॥९॥ तिय भूपन सब अंग निहारी । सूरदास बोल्यो सुष धारी ॥१०॥ बंदी भाल दियो क्यों नांही । लषि प्रभाव यह सूर तहांही ॥१२॥ कीन्हे सकल लोग जय सोरा । ष्यात बात भै जग सब ठोरा ॥१२॥ दोहा-कै विरक्त संसार ते , दिव्य दृष्टि हरि ध्यान । - सूरदास करते रहे , निसिदिन विदित जहांन ॥ ३॥ सूरदास इतिहास बहु , परचै अहैं अनेक । जानि लेहु सब संतजन, कहौ नेक सबिबेक ॥४॥ .' कवित्त-कविकुल कोक कंज पाइकै किरिनि काव्य विकसे चिनोदित है नेरे और दूर के। सूषिगो अज्ञान पंक मंद भो मयंक मोह विषय विकार अंधकार मिटै कूर के॥ हरि की विमुषताई रजनी पराई गई मूक भये कुकवि उलूक रस झूक के। छायो तेज युहुमि में रघुराज कर हरि जन जीव मूर सर उदै होत सूर के ॥१॥ मतिराम (१) भूषन (२) बिहारी (३) नीलकंठ (४) गंग (६) बेमी (६) संभु (७) तोष (८) चिंतामनि (९) कालदास (१०)की। ठाकुर (११) नेवाज (१२) सैनापति(१३) सुकदेव (१४) देव (१५) पजन(१६) घनआनंद (१७) घनस्यामदास (१८) की ॥ सुंदर (१९) युरारि (२०) वोधा (२१) श्रीपति हूं (२२) दयानिधि (२३) जुगुल (२४) . कविंद (२६) त्यौं गोबिंद (२६) केसोदास (२७) की। भने रघुराज

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