[ १४७ ] राग सारंग । ऊधी इतने मोहि सतावत । कारी घटा देषि बादर को दामिनि चमकि डेरावत ॥ हेमसुतापति को रिपु व्याप दधिसुत रथ न चलावत। अंबूषंडन सबद सुनत ही चित्त चकृत उठि धावत ॥ कंचनपुर पति का जो भाता ते सब बल हिन श्रावत। संभुसुत को जो बाहन है कुहुकै असल सलावत ॥ जद्यपि भूनन अंग बनावत सोइ भुजंग होडू धावत । सूरदास विरहिन अति व्याकुल पगपति चडि किन आवत॥३३॥ ऊधो इति । उक्ति गोपी की हे उधो इतने हमैं सतावत हैं कारी घटा औ दामिनी हेमसुतापति शिव तिनको रिघु काम औ दधिसुत चंद रथ नाहीं चलावत । औ अंबुषंडन पपिहा को शब्द औ कंचनपुरपति रावन ताको भाई कुंभकरन ताकी प्रिया निद्रा नहीं आवति शंभुसुतबाहन मोर कुहुकै है । जे भूषन अंग से बतावो है हौ सर्प होय दौरे हैं बिरहनि ऐसी व्याकुल कि पगपति कृष्ण क्यों नहीं आवत ॥ ३३ ॥ राग धनाश्री। हरिसुतसुत हरि के तन आहि। ह्याँको कहै कौन की बातें ज्ञान ध्यान
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