पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१४६

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महि जाई । गिरिजापतिरिपु नष सिष व्यापतु बसत सुधा पिय कथा सुनाई ॥ बिरहिन विरह आप बस कीन्हों लेउ कमल जिमि पाहू छुवाई । बगि मिलौ सर के स्वामी उदधितनया पति मिलि है आई ॥३०॥ सपी की उक्ति नायक सों। राधे के चिल के कहा विरमाइये नैन एकटक रहैं हैं। सिवधर गिरि पलक गिरि के जैन नाही लागत हैं। स्याम सुता है रति पुत्र अनुरुध । न उषा नाम स्याम सुता है रति पुत्र अनुरुध। तनऊषा नाम प्रात आयो। हर वाहन बैल ताको नाम गो गो कहिले पछी को दिव कहिये स्वर्ग ताके बासी कहिये पछी को दिव कहिये स्वर्ग ताके बासी कहिए सुर दूनो मिलि गरुड भये तिन के सहोदर अरुन तिन के उदित भये ते मूर्छित भूमि में गिरै है। गिरिजापतिारयु काम नब सिव में व्याप्यो है औ सुधा प्रिय पपीहा ताने पीआ सुनायो है औ बिरहिनि को बिरह ने अपने बस कियो है। ताको कमल जिमि पाय सो छवाय लेव । हे सूर के स्वामी बेगि मिलो उदधिसुता सीप पति मेघ नाव जीव दान को पुन्य मिलि राग सारंग। प्रीति करि काहू सुष न लह्यो। प्रोति पतंग करी दीपक सों आपै प्रान दद्यो॥ अलिसुत प्रीति करी जलसुतसों संपति हाथ गह्यौ॥ सारंग प्रीति करी जो नाद सों सनमुख बान सह्यौ । हम जो प्रीति करी माधौ सों चलतन कुछ कयौ ॥