[१४१] सारंग ते दधिसुत आवत जात॥ विधु बिहुरे विध किए सिषंडी सिव मैं सिव सुत जात। सूरदास धरै को धरनी स्याम सुनो यह बात ॥ २६ ॥ सषी की उक्ति नायक सों। उर परेति । देपिये ससि सात को अर्थ ससि १ सात ७ आठ कहे नाग कहे केस ते करौट क्रिया सों उपर पर परे हैं तासों सर्प भय तें राधिा चौंकि परी आधी राति मैं। गगन सीस तातें पंड पंड कहें अनेक भाग है गिरे । वासपति नाग तिन के भय है मानो सो वह रूप की मारग में दधिसुत चंद चंद कहे मुष तापे आवे है । विधु कहे मुष ताके विषे बिहरे जे वार ते सिपंडी कहै मयूर ताकी विधु किये है। अर्थात् मोर चंद्ररूपी मुष करे हैं औ सिव जो उरोज तिन में सिवसुत कहे स्वामकार्तिक जात हैं । हे स्याम ऐसी धरन को न धरि सकै अर्थ कोई न । अथवा ससि कहे १ सात तो एक के ऊपर सात ऐसे कार के सत्रह सत्र नाम रिपु सुत पत्नी राधिका स्वम में देषि चौंकि परी । ताके दुप सों पंडपंड के के गिरे गनन तें। कहे ऊपर ते बालय कहे आंस औ तिन के भ्रात प्रसेदकन कै मानो बहुत रूप करि कै विसुत चंदमुष ताकी राह आवत है । जात कहे आंसू । विधु जो शुष गाते विहुरे कहें फैले आंसू सो सिपंडी कहे मोरवारी बेसर ताम सिवसुत कहे किर्तमुप मुष कृत सिव जो है कुच तामें जात है कहे प्राप्त होत है सो हे स्याम यह वात सुनो धरनी छमा सों छमा को कैले धरै ॥२६॥ राग बिलावल । आजु बन राजत जुगल किसोर । दसन वसन पंडित मुष मंडित गंड तिलक कछ थोर ॥ डगमगात पग
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