[ १४० ] सारंग को सूर निति ध्यावे हैं औ सारंग जे चरन कमल तिन पै बलि बलि जाइ है ॥ २४॥ हरि उर मोहनी बेलि लसी। ता पर उरग ग्रसित तब सोभित पूरन अंस ससी ॥ चाँपति कर भुज दंड रेष गुन अंतर बीच कसी। कनक कलस मधु- पान मनौ कर भुज निज उलटि धसी॥ ता पर सुन्दरि अंचर झाप्यौ अंकित दंस तसी। सूरदास प्रभु तुमहिं मिलत जनु दाडिम बिगसि हसी ॥ २५ ॥ हरि उर इति । उक्ति सषी की हरि श्रीकृष्ण तिन के उर पै राधा जो है मोहन बेलि सोभै है। तो मोहन बेलि के ऊपर उरग जो है बेनी सो पूरन ससि मुष ताको ग्रसे है चांपै है ताको गुन सूत्र सो अंतर तर के बीच में कसी है सो मानो कनक कलस जो कुच हैं तिन की मधु पान करि कै निज भुज में धंसी उलटि के । तापै सुंदर अंचल जो ढांप्यो है सो दंसत सी अंकित कहै जाहिर होय है सो सूरदास प्रभु के मिलत न मानों दाडिम जो अनार सो बिगसो ऐसी हंसी है ॥२६॥ उर पर देषियत ससि सात।सोबत हुती कुंवरि राधिका चौंकि परी अध- रात ॥ षंड पंड होइ गिरे गगन ते वासपतिन के भ्रात। कै बहु रूप किये
पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१४१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।