पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१३२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राये ते बहु इति । हे राधे तें बहुत लोभ कयौ है। लावनरथ बैल ताके पति महादेव ताको भूषन चंद्रमा की सोभा मुष सो हरि लीन्हीं है। भृकुटी ते कोदंड बेनी ते अवनीधर सर्प छबि तें चपला नाशिका तें कीर विवस होय गये हैं ॥ बानी ते पिक भुज तें मृनाल अरु गति तें गज अरु ताको अरि ग्राह सो ग्रहन किये गन तें। जलचर मीन अरु . कटि तें सिंह ए सकुचि करि जिय में जरे जाय हैं ॥ १४ ॥ • राग नट। 'कहि पठई हरि बात सुचित दै सुनि राधिका सुजान। तेजु बदन झाप्यो झुकि अंचल इहै न टुष मेरे मन मान॥ यह पै दुसह जु इतनेहिं अंतर उपजि परै कछु आन। सरद सुधा ससि की नव कीरति सुनियत अपने कान॥ पंजरीट मृग मीन मधुप पिक कीर करत है गान। बिद्रुम अरु बंधूक बिंब मिलि देत कबिन छवि दान॥दाडिम दामिनि कुंद- कली मिलि बाट्यौ बहुत बधान । सूर- दास उपमा नछचगन सब सोभित बिन भान॥ १५ ॥ कहि पठई इति । सषी की उक्ति नायका सों। जो हरि ने कहि पठई सो चित दै सुनो हे राधे जो तैं बदन झुकि कै झाँप्यो है सो दुष मेरे मन में नाहीं है परंतु यह दुष है सरद को जो ससि है ताकी नवीन कीरति अपने कान तें सुनि परे है तो मुष प्रकास बिन अरु पंजरीट मृग