पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/११८

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[ ११७] सिसु सुनु मांग बर जो चाडू। हों कही प्रभु भगत चाहत सत्रु नास सुभाइ ॥ टूसरो ना रूप देषो देषि राधा स्याम । सुनत कनासिंधु भाषी एवमस्तु सुधाम॥ प्रवल छदछिन बिप्र कुल तें सत्र ह है बास । अषित (E)बचि बिचारि विद्या- मान माने मास॥ नाम राषे मोर सूरज दास सूर मुस्थाम । भये अंतरध्यान बीते पाछली निस जाम ॥ मोहि पनसो (१०)इहै बृज की बसे सुष चित थाप। थपि (११)गोसाई करी मेरो आठ मद्दे छाप॥ विप्र प्रथजगात को है भाव भूर निकाम। सूर हैनंदनंद जूकोलयोमोलगुलाम॥११८॥ अर्थ सुगम सूर आपन बंस बरनत है ॥ ११८ ॥ इति श्री पद कूट सूरदास टीका संयुक्त संपूणम् । टिप्पणी-मरदार कवि ने कईएक स्थान इस भजन में पाठांतर किया है वह अंक देकर नीचे लिखा है। (१) शुभ में (२) पृथ्वीराज (३) रंतभौर (४) सुषअवदात (५) कृतचंद (६) षष्टम (७) साहि से सब (८) दिव्य (९) अघिल (१०) मनसा (११) श्री सूरदास के विषय में ग्रंथ के अंत में लिखा जायगा।