[ १०९ ] ताल मारत महा मार प्रयोग। मरन देतन जियन सजनी गरक गाडत रोग॥ सिंधुरिमुहित तासु पतनी नात सिव कर जौन । आदि कासों पढो बैरी जान परत न तौन ॥ देष बिन मन करत आपन देष विनु न रहात । सूर संकर करन भूषन जो जगत विख्यात ॥११६॥ उक्त नाइका की प्रति सपी के अदल पारवती पति शिव रिपु काम पितापतनी जमुना अब न जैहैं वातसुत भीम अप्रिय भ्राता करन सुभाव सषी विनु भानु तपन घाम किसान ग्रह रछक टाटी आदि बरन ते घाट के मध्य में नंदनंदन ठाढ होत है नदी नाम नवन मिले ते नयन होत ताके उर में ताल सर नाम वान मारत है महा मार काम को प्रयोग कर के तासों न मरन देत न जियन देत महा रोग गाडत है सिंधु रिघु अगस्त हित राम पतनी सीता भ्राता मंगल शिव कर त्रिसूल आदि वरन ते मंत्र कासों ऐसो पढो है देषत तन मन आपन करत है विन देषे रहो नाहीं जात या संकर रूपक विकल्प को है ॥११६॥ टिप्पनी—इस भजन को नाम मात्र को एकाध स्थान पर पाठांतर कर सरदार कर कवि ने अर्थ किया है वह ज्यों का यों का प्रकाश किया जाता है। अदलपति रिपु पिता पतनी अब न जैहों फेर । बात सुत भ्राता अप्रिय के बिन सुभाव न हेर । भानु तपन किसान ग्रह के रक्षपालक आदि । मध्य ठाढो होत नंदन नंद कर उनमादि ॥ नदिन के उर ताल मारत बिना मार प्रयोग । मरन देत न जिय न एरी गरक गाँठत रोग। सिंधु रिपु हित तासु पतनी अत्र सिव कर जोन ।। आदि कामाँ पढो बैरी जान परत न तो न । देषि बिनय न करत आपन दोषि बिन न रहात । सूर संकर करत भूपनं जो जगत विष्यात ॥ ५० ॥ • अदलपति रिपु काम पिता कृष्णपतनी जमुना न नहाऊंगी। बातसुत भीम
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