[ १०७ ] पहिचान । वृथा ब्रज की नार नित प्रत देडू उरहन आन ॥ तोहि अपनो लाल प्यारो हमैं कुल को कान। सूर समुझ विभावना है दूसरो परमान ॥ ११४ ॥ उक्त सपी को जसोदा (जमुधा) प्रत के अपनो कान (कान्ह) देष सर नाम बान बान संज्ञा पांच वरप (पांच को) को अब नाही भयो है हीन सुत पूतना ताको हरष हर के जो कियो सो सब जानते हैं भानु नाम-त्रिमूरत सुनं नाम नाक जीव नाम बृहस्पत निसगुनतम आदि वरण ते त्रिनावृत भयो सिंधुजा रमा लवन गुण पारो अंत ते मारो अरु वृजवाल तुम्है वृथा उरहन देती हैं तुम्है अपनो पुत्र प्यारो हमें कुलकान यामै अपुष्ट कारन त कारज पुष्ट भयो ताते दुती विभावना है ॥ ११४ ॥ टिप्पणी-सरदार कवि ने इस भजन को और भी एक स्थान पर लिखा है वह ज्यों का त्यों अर्थ समेत प्रकाश किया जाता है। जसुमत देषि अपनो प्रान । वर्ष सर को भयो पूरन अबाहिं ना अनुमान ॥ होनसुत को हरष करपा सब जाहिर जान । त्रिदम सुनं मुजीव निमगुन प्रथम जोर प्रमान || बथा वन की नारि निसदिन देति उरहन आन ! तोहि आपन लाल प्यारो हमें कुल की कान । मर समुझ बिभावना है दूसरो अनुमान ॥४९॥ ____ उक्ति गोपी को । अपनों प्रान देषि वर्ष सर पाँच बो नाही भयो । हीन सुत पूतना हरष करो । त्रिदम देव मुनं नाक जीव बृहस्पति निसगुन तम आदि तें । तनावत मारो सो तू कहत वृजवाल नाहक उरहन देति तुम्हें पुत्र पियारो हमें कुलकान यह दूसरो बिभावना है । उद्दीपन प्रथम आलंबन है अरु बिभावना अलंकार । हेतु अपूरन तें जहाँ कारज पूरन होय । पाँच बरप में पोडस बरन को कृत्य कीनी ॥ ४९ ॥ नीकन अदभुत बान लई । आपु ना तजत ग्रह पर उर में कर बर सूल सई ॥ बाचर.षचर हार गे बनचर होत
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