[ १०६ ] निर्षत दुष बहुतेरो। सूर सुजान बिभावन पहिलों किंकर कर मन चेरो ॥ ११३ ॥ उक्त सपी की सपी प्रत के हे सपी मैं शाम मुष नाहीं देपो है सूर सुता जमुना राग पिता सुर गंध पिता (पितु) मलय प्रिय तन इन के आदि बरन ते जसुमत ताके मुष नाम आनन समूह नाम गन मानुष नर आदि वरन ते आंगन में फेरो नाहीं कियो पय नाम बा नीरजर नाम सुर रिस रीस (नीरीसनी) आदि बरन ते बांसुरी ताको शब्द भी नाहीं सुनो मैं नाहीं जानत मोकों अनुराग ने कहां ते घेरो है भूषन मुद्रापति अगस्त अहार समुद्र सुत चंद को उजेरो वैरी होइ के अंग जारत है वान नाम सर नाम ताल पलटे ते लता भानुजा जमुना के तट में देषे तें बहुत दुष होत है यामे पहिलो विभावना अलंकार पूर्वानुराग में सरवन दरसन है देषव कारण सो नाही विरह कारज ॥ ११३ ॥ टिप्पणी-सरदार कवि ने इस पद के अर्थ को भी दूसरे स्थान पर कुछ घटा बढ़ाकर लिखा है वह ज्यों का त्यों नीचे प्रकाश किया जाता है। उक्ति नाइका की। मैं स्याम को मुष न देषों है । सूरसुता जमुना राग पिता सुर गंध पितु मलय प्रिय तन आदि बरन ते जसुमत मुष आनन समूह गुन मानुष नर आदि तें आगमन में फेरो नाहीं कियो पय बारि निरजर सुर रीस आदि तें बाँसुरी ताको सब्द भी नाहीं सुनो । अनुराग घेरो सो नाहीं जानत । भूषन मुद्रा पति अहार समुद्र सुत चंद जारत । बान सर सर ताल पलटे ते लता जमुना तट देषे दुष होति । यामें पहिल बिभावना अलंकार श्रवन दरसन देषिबो कारन नाही बिरह काज तें ॥ ४८ ॥ _ जसुमत देष अपनो कान। बर्ष सर को भयो पूरन अबै ना अनुमान ॥ होन सुत को हरष हरके कियो सो सब जान। भान सुनं सो जीव निस गुन प्रथम जोर बषान॥ सिंधुजा गुनलवन कीनो अंत ते
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