पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१०४

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है अंग के नाहीं यह मोको चिंता है आगे तेरी समुझ पुकार घन हीन मोर कासों करें यामें सिंगार को अंग चिंता भाव ताते प्रयसुत (प्रमसुत)॥११॥ टिप्पणी-सरदार कवि ने एक स्थान पर इस पद को कुछ घटा बढ़ा- कर अर्थ किया है वह नीचे प्रकाश किया जाता है। है बृज चंद बदन चकोर। रहे कबि नेम निरदै नेह नातो जोर ॥ धातु रूप बेचार कर बिपरीत पहिलो जोर । बार कर बिपरीत इन को मोहि नाहि निहोर ॥ जनम संगी अंगनाहीं करत कचहूं तोर । यहै निसदिन मोहि चिंता समझ सजनी तोर ॥ सूर कति चाहि पुकारे बिना नघ की घोर ॥ ४५ ॥ ___ उक्ति नाइका की। कै दृग मष चंद के चकोर कवि है हैं धातु तामा वेपरीत ते माता । वार जल विपरीत ते लाज अर्थ माता की लाज नाही ये जन्म. साथी हैं यही तेरी समुझ की चिंता है । कतिचा विपरीत ते चातक सो पुकार । नघ विपरीत ते घन हीन ॥ ४५ ॥ काहे को मम सदन सिधारो। ब्रज- भूषन बल्ल जाहु तिहारी तुम ब्रजजीवन जग उंजियारो॥ ग्रह नछन है बेद जासु घर ताहि कहा सारंग सम्हारो। गिरजा- पति भूषन जिन देषे ते कह देषत है नभ तारो॥ मुरतरु सदन सुभाव छाडि कह चाहत है द्रुम भूम भंडारो। सूर रहो नीके निसबासर हम सुन सुषो न होत दुपारो ॥ १११ ॥ उक्त नाइका की नाइक प्रत (के हमारे घर हो या तुम काहे को आये है वज- भूषन मैं तिहारी वल जाऊं तुम जग उंजियारे हौ) ग्रह ९ नक्षत्र २७ वेद .४ कै मन होत है जाके घर पनि होइ (होहिं) सो का सारंग दीप सम्हारत है अरु । A