हमेशा ही कोई न कोई विशेष सुविधा प्राप्त कर लेता है : किसी वाणिज्यिक समझौते में अपनी सुविधा की कोई शर्त, जहाजों के लिए कोयला लेने का कोई स्थान, कोई बंदरगाह बनाने का ठेका, कोई बड़ी- सी रियायत, या तोपों का आर्डर।"*[१]
वित्तीय पूंजी ने इजारेदारियों के युग को जन्म दिया है और इजारेदारियां हर जगह इजारेदारी के सिद्धांत लागू करती हैं : खुले बाज़ार में प्रतियोगिता के बजाय मुनाफ़े के सौदों के लिए “संबंधों" का फ़ायदा उठाया जाने लगता है। सबसे ज्यादा आम बात तो यह होती है कि एक शर्त यह लगा दी जाती है कि जो ऋण दिया गया है उसका एक भाग ऋण देनेवाले देश से चीजें खरीदने पर, विशेष रूप से युद्ध-सामग्री, या जहाज़ आदि खरीदने पर खर्च किया जायेगा। पिछले दो दशकों में ( १८९०-१९१०) फ्रांस ने यह तरीक़ा बहुत बार अपनाया है। इस प्रकार विदेशों को पूंजी का निर्यात करना बिकाऊ माल के निर्यात को प्रोत्साहन देने का साधन बन जाता है। इस प्रसंग में, विशेष रूप से बड़ी-बड़ी कम्पनियों के बीच होनेवाले सौदे ऐसा रूप धारण कर लेते हैं जिसके बारे में शिल्दर**[२] ने “बहुत नरम शब्दों में" कहा है कि वह "लगभग भ्रष्टाचार ही होता है"। जर्मनी में क्रुप्प , फ्रांस में श्नाइदर, इंगलैंड में आर्मस्ट्रांग ऐसी कम्पनियां हैं जिनके संबंध शक्तिशाली बैंकों तथा सरकारों के साथ बहुत गहरे हैं और ऋण का बंदोबस्त करते समय इनकी आसानी से "उपेक्षा" नहीं की जा सकती।
रूस को ऋण देते समय फ्रांस ने उसे “दबाकर" १६ सितम्बर, १९०५ का वाणिज्यिक समझौता करने पर मजबूर किया जिसमें उसने कुछ ऐसी रियायतों की शर्त रखी जो १९१७ तक लागू रहनेवाली थीं। १९ अगस्त, १९११ को जब फ्रांस और जापान के बीच वाणिज्यिक समझौता
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