शब्दों में एक पत्र लिखा : “आपने इस माह की १८ तारीख के एक अखबार में जो नोटिस प्रकाशित की है उससे हमें जो कुछ मालूम हुआ है उसके अनुसार हमें इस संभावना को ध्यान में रखना होगा कि आपके सिंडीकेट की अगली आम बैठक में, जो इस माह की ३० तारीख को होनेवाली है, शायद कुछ ऐसे क़दम उठाने का फैसला किया जाये जिनके कारण संभवतः आपके कारोबार में ऐसे परिवर्तन हो जायें जो हमें स्वीकार्य नहीं हैं। हम अत्यंत खेद है कि इन कारणों से हम आगे चलकर आपको वह ऋण देना बंद कर देने पर बाध्य हैं जो आपको अब तक दिया जाता रहा है ... परन्तु यदि इस बैठक में ऐसे क़दम उठाने का फैसला न किया जाये जो हमें अस्वीकार्य हैं, और हमें भविष्य के लिए इस विषय में उचित आश्वासन मिल जायें, तो हम आपके साथ नये ऋण की मंजूरी की बातचीत आरंभ करने के लिए बिल्कुल तैयार हैं।"*[१]
वास्तव में यह छोटी पूंजी की वही पुरानी शिकायत है कि बड़ी पूंजी उसे दबाती है, पर इस उदाहरण में तो एक पूरा सिंडीकेट “छोटी” पूंजी की श्रेणी में आ गया ! छोटी और बड़ी पूंजी का पुराना संघर्ष विकास की एक नयी तथा अत्यधिक ऊंची मंजिल पर दुबारा शुरू किया जा रहा है। यह बात समझ में आती है कि बड़े बैंकों के कारोबार, जिनकी कीमत कई-कई अरब है , ऐसे साधनों से प्राविधिक उन्नति की रफ्तार को तेज़ कर सकते हैं जिनकी तुलना पिछले ज़माने के साधनों से करना असंभव है। उदाहरण के लिए बैंक प्राविधिक शोधकार्य की विशेष सोसायटियां स्थापित करते हैं और ज़ाहिर है कि केवल “मित्र" औद्योगिक कारखाने ही उनके काम से लाभ उठा सकते हैं। बिजली की रेलों की शोध संस्था, वैज्ञानिक तथा प्राविधिक शोध की केंद्रीय ब्यूरो, आदि इसी श्रेणी में आती हैं।
स्वयं बड़े बैंकों के संचालक इस बात को देखने से नहीं चूक सकते
- ↑ * Dr. Oscar Stillich, «Geld- und Bankwesen», Berlin 1907, पृष्ठ १४८।
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