पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/४८

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मार्क्स ने “पूंजी" में अब से पचास वर्ष पहले लिखा था कि बैंकों की पद्धति “सचमुच बही-खाते रखने की आम प्रणाली और उत्पादन के साधनों को सामाजिक पैमाने पर वितरित करने के रूप को प्रस्तुत करती है, परन्तु केवल रूप को ही"। (रूसी अनुवाद , खंड ३ , भाग २, पृष्ठ १४४। ) हमने बैंकों की पूंजी में वृद्धि , सबसे बड़े बैंकों की शाखाओं तथा कार्यालयों की संख्या में वृद्धि और उनमें खातों की संख्या में वृद्धि आदि के बारे में जो आंकड़े उद्धृत किये हैं उनसे पूरे पूंजीपति वर्ग की “बही-खाते रखने की इस आम प्रणाली" का एक ठोस चित्र हमारी आंखों के सामने आता है - और केवल पूंजीपति वर्ग की ही नहीं, क्योंकि बैंक , अस्थायी रूप से ही सही, तरह-तरह का पैसा जमा करते हैं - छोटे व्यापारियों का, दफ्तरों के क्लर्कों का, और मजदूर वर्ग के उच्च स्तर के बहुत ही अल्पसंख्यक लोगों का। उत्पादन के साधनों का सब लोगों में वितरण" बाहर से देखने में आधुनिक बैंकों से पैदा होता है, जिनमें फ्रांस के तीन से छः तक और जर्मनी के छः से आठ तक सबसे बड़े बैंक आते हैं और जिनके कब्जे में अरबों की पूंजी है। परन्तु असलियत में उत्पादन के साधन का वितरण "सब लोगों में" नहीं बल्कि निजी होता है, अर्थात् वह बड़ी पूंजी के, और मुख्यतः विशाल इजारेदार पूंजी के हितों के अनुकूल होता है, जो ऐसी परिस्थितियों में अपना कारोबार चलाती है जिसमें सर्वसाधारण प्रभाव का शिकार रहते हैं , जिसमें कृषि का पूरा विकास उद्योगों के विकास से बेहद पीछे रहता है, और स्वयं उद्योगों में भी “भारी उद्योग" उद्योगों की अन्य सभी शाखाओं को अपने आगे नतमस्तक रखता है।

पूंजीवादी अर्थतंत्र के समाजीकरण के मामले में बचत-बैंक और डाकखाने बैंकों से टक्कर लेने लगे हैं, वे ज्यादा “विकेंद्रित" हैं अर्थात् उनका प्रभाव ज्यादा जगहों में, ज्यादा सुदूर स्थित स्थानों में और जनसंख्या के व्यापकतर क्षेत्रों में फैला हुआ है। बैंकों तथा बचत-बैंकों

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