२. बैंक और उनकी नयी भूमिका
बैंकों का मुख्य और मूल काम धन के भुगतान में बिचवानी करना है। ऐसा करते हुए वे निष्क्रिय द्रव्य पूंजी को सक्रिय पूंजी में बदल देते हैं अर्थात् ऐसी पूंजी में जिससे मुनाफ़ा मिल सके , वे तरह-तरह का धन जमा करते हैं और उसे पूंजीपति वर्ग के हाथों में सौंप देते हैं।
जैसे-जैसे बैंकों का कारोबार विकसित होता है और बहुत थोड़े-से संस्थानों में संकेंद्रित हो जाता है, वैसे-वैसे बैंक छोटे-मोटे बिचवानों से बढ़कर शक्तिशाली इजारेदारियों का रूप धारण कर लेते हैं जिनके हाथ में उस देश के सभी पूंजीपतियों तथा छोटे मालिकों की लगभग समस्त द्रव्य पूंजी और उस देश के तथा कई देशों के उत्पादन के साधनों तथा कच्चे माल के स्रोतों का अधिकांश भाग होता है। अनेक छोटे-छोटे बिचवानों का मुट्ठी-भर इजारेदारों में परिवर्तित हो जाना पूंजीवाद के विकसित होकर पूंजीवादी साम्राज्यवाद का रूप धारण कर लेने की एक मूलभूत प्रक्रिया का द्योतक है; इसलिए हमें सबसे पहले बैंकों के कारोबार के संकेंद्रण पर विचार करना चाहिए।
१९०७-०८ में जर्मनी के उन ज्वाइंट-स्टाक बैंकों में, जिनमें से प्रत्येक के पास दस लाख मार्क से अधिक की पूंजी थी, जमा की गयी रकम कुल मिलाकर ७, ००,००,००, ००० मार्क थी ; १९१२-१३ में जमा की गयी यह रकम बढ़कर ९,८०,००,००,००० मार्क हो गयी थी। पांच वर्ष में ४० प्रतिशत की वृद्धि ; और २,८०,००,००,००० की इस वृद्धि में से २,७५,००,००,००० की वृद्धि ५७ ऐसे बैंकों में बंटी हुई थी जिनमें से प्रत्येक के पास १,००, ०० , ००० मार्क की पूंजी थी। बड़े और छोटे बैंकों के बीच जमा की गयी रक़म का वितरण इस प्रकार था :*[१]
- ↑ * Alfred Lansburgh, «Fünf Jahre deutsches Bankwesen» (जर्मनी में बैंकों के कारोबार के पांच वर्ष- अनु०) «Die Bank» में, १९१३ , अंक ८, पृष्ठ ७२८।
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