"१८८९ के ऋण के कारण चिली को होनेवाला निर्यात बढ़कर (१८९२ में) ४,५२,००,००० मार्क तक पहुंच गया, और एक वर्ष बाद घटकर फिर २,२५,००,००० मार्क रह गया। १९०६ में जर्मनी के बैंकों ने चिली के लिए फिर नया ऋण जुटाया जिसके बाद १९०७ में निर्यात बढ़कर ८,४७,००,००० मार्क तक पहुंच गया, लेकिन १९०८ में फिर घटकर ५,२४,००, ००० मार्क रह गया।"*[१]
इन तथ्यों से लैंसबर्ग यह दिलचस्प निम्न-पूंजीवादी ढंग का निष्कर्ष निकालते हैं कि निर्यात व्यापार जब ऋणों के साथ बंधा रहता है तो वह कितना अस्थायी और अनियमित होता है, अपने देश के उद्योगों को "स्वाभाविक ढंग से" तथा "सामंजस्यपूर्वक" विकसित करने के बजाय विदेशों में पूंजी लगाना कितना बुरा होता है, विदेशों के लिए ऋण जुटाने में क्रुप्प को जो करोड़ों की बख्शीश देनी पड़ती है वह कितनी "महंगी" बैठती है, आदि। परन्तु इन तथ्यों से हमें साफ़-साफ़ पता चलता है कि निर्यात में वृद्धि का संबंध वित्तीय पूंजी के ठीक इन्हीं जालबट्टों से है। उसे पूंजीवादी नैतिकता की फ़िक्र नहीं होती बल्कि फ़िक्र होती है दोहरी कमाई की—पहले तो वह ऋण से होनेवाला मुनाफ़ा हड़प कर जाती है, फिर जब ऋण लेनेवाला उसी ऋण से क्रुप्प से माल खरीदता है या स्टील सिंडीकेट से रेलों का सामान, आदि खरीदता है तो वह इस व्यापार से होनेवाला मुनाफ़ा भी हड़प कर लेती है।
हम एक बार फिर कहते हैं कि हम किसी भी प्रकार लैंसबर्ग के आंकड़ों को दोषरहित नहीं समझते, पर हमें उनको इसलिए उद्धृत करना पड़ा कि वे कौत्स्की तथा स्पेक्तातोर के आंकड़ों की अपेक्षा अधिक
- ↑ *«Die Bank», १९०९, २, पृष्ठ ८१९ तथा उसके बाद के पृष्ठ।
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