देश को स्वतंत्र कर देने का आश्वासन दिया, लेकिन बाद में वहां अपनी, फ़ौजें उतार दीं और उसपर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया), उसे "अंधराष्ट्रवादी विश्वासघात" ठहराया और लिंकन के शब्दों को उद्धृत करते हुए कहा: "जब गोरा आदमी अपने ऊपर शासन करता है तो वह स्वशासन होता है, लेकिन जब वह अपने ऊपर भी शासन करता है और दूसरों पर भी तब वह स्वशासन नहीं रह जाता, वह निरंकुश शासन बन जाता है।"*[१] परन्तु जब तक यह आलोचना साम्राज्यवाद और ट्रस्टों के और इसलिए साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के आधारों के पारस्परिक अटूट संबंध को स्वीकार करने से कतराती रहेगी, जब तक वह बड़े पैमाने के पूंजीवाद और उसके विकास द्वारा पैदा होनेवाली शक्तियों के साथ मिलने से कतराती रहेगी—तब तक वह एक "कोरी इच्छा" ही रहेगी।
हाबसन ने भी अपनी साम्राज्यवाद की आलोचना में मुख्यतः यही रवैया अपनाया है। हाबसन ने "साम्राज्यवाद की अनिवार्यता" वाली दलील का विरोध करके और जनता की "उपभोग-क्षमता को बढ़ाने" (पूंजीवाद के अंतर्गत!) की आवश्यकता पर ज़ोर देकर कौत्स्की के ही तर्कों को उससे पहले पेश कर दिया था। जिन लेखकों के हमने ऊपर अनेक बार उद्धरण दिये हैं, जैसे अगाह द, अ॰ लैंसबर्ग, एल॰ अश्वेगे, और फ़्रांसीसी लेखकों में विक्टर बेरार जिनकी "इंगलैंड तथा साम्राज्यवाद" नामक बहुत ही सतही रचना १९०० में प्रकाशित हुई थी, साम्राज्यवाद, बैंकों की सर्वशक्तिमानता, वित्तीय अल्पतंत्र आदि की आलोचना में निम्न-पूंजीवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं। ये सभी लेखक, जो
- ↑ * J. Patouillet, «L'impérialisme américain», दिजोन १९०४, पृष्ठ २७२।
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