नामक अपनी रचना के दूसरे संस्करण की भूमिका में भी, जो १८९२ में प्रकाशित हुई थी, ऐसे ही विचार व्यक्त किये थे।)
इससे कारण तथा परिणाम बिल्कुल स्पष्ट हो जाते हैं। कारण ये हैं: (१) इस देश द्वारा पूरे विश्व का शोषण; (२) विश्व के बाज़ार में उसकी इजारेदार स्थिति; (३) उपनिवेशों पर उसकी इजारेदारी। परिणाम ये हैं: (१) ब्रिटिश सर्वहारा वर्ग का एक हिस्सा पूंजीवादी हो जाता है; (२) सर्वहारा वर्ग का एक हिस्सा ऐसे लोगों का नेतृत्व स्वीकार करता है जिन्हें पूंजीपति वर्ग ने यदि ख़रीद नहीं लिया है तो कम से कम वे उससे वेतन तो पाते ही हैं। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ के साम्राज्यवाद ने मुट्ठी-भर ऐसे राज्यों के बीच दुनिया को पूरी तरह बांट लिया था, जिनमें से प्रत्येक आज "पूरी दुनिया" के उससे कुछ ही छोटे भाग का शोषण करता है (अर्थात् उनसे अतिलाभ कमाता है) जितने भाग का शोषण इंगलैंड १८५८ में करता था; इनमें से प्रत्येक राज्य को ट्रस्टों, कार्टेलों, वित्तीय पूंजी तथा क़र्ज़ देनेवालों और क़र्ज़ लेनेवालों के संबंधों की बदौलत विश्व के बाज़ार में इजारेदार का पद प्राप्त है, इनमें से प्रत्येक राज्य को कुछ हद तक औपनिवेशिक इजारेदारी हासिल है (हम देख चुके हैं कि पूरे औपनिवेशिक जगत की कुल ७,५०,००,००० वर्ग किलोमीटर भूमि में से ६,५०,००,००० वर्ग किलोमीटर, अर्थात् ८६ प्रतिशत भूमि पर छः ताक़तों का क़ब्जा है; ६,१०,००,००० वर्ग किलोमीटर, अर्थात् ८१ प्रतिशत भूमि पर तीन ताक़तों का क़ब्ज़ा है)।
वर्तमान स्थिति की लाक्षणिक विशेषता यह है कि आज ऐसी आर्थिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों का बोलबाला है जिनमें अवसरवाद और मज़दूर वर्ग के आंदोलन के आम तथा बुनियादी हितों के बीच मेल न बैठ सकने की प्रवृत्ति का बढ़ना अनिवार्य था: साम्राज्यवाद एक अंकुर से बढ़कर एक प्रभुत्वशाली व्यवस्था बन गया है; अर्थ-व्यवस्था
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