"आक्रामक साम्राज्यवाद, जो टैक्स अदा करनेवालों को इतना महंगा पड़ता है, जो कारखानेवालों तथा व्यापारियों के लिए इतने कम महत्व का है,... पूंजी लगानेवालों (अंग्रेज़ी में 'इन्वेस्टर') के लिए बहुत मुनाफ़े का स्रोत है... ग्रेट ब्रिटेन को अपने पूरे वैदेशिक तथा औपनिवेशिक व्यापार से आयात तथा निर्यात से कमीशन के रूप में प्रति वर्ष जो आय होती है उसके बारे में सर आर॰ गिफ़ेन ने यह अनुमान लगाया है कि १८९९ में यह आय, ८०,००,००,००० पौंड के कुल लेन-देन पर २.५ प्रतिशत के हिसाब से, १,८०,००,००० पौंड (लगभग १७,००,००,००० रूबल) थी।" यह रकम बहुत बड़ी तो है पर उससे ग्रेट ब्रिटेन के आक्रामक साम्राज्यवाद की पूरी व्याख्या नहीं हो सकती। उसकी व्याख्या तो "लगायी गयी" पूंजी से होनेवाली ९-१० करोड़ पौंड की आय से, सूदखोरों की आय से ही हो सकती है।
सूदखोरों की आय संसार के सबसे बड़े "व्यापारी" देश के वैदेशिक व्यापार से होनेवाली कुल आय से पांच गुनी अधिक है! यह है साम्राज्यवाद तथा साम्राज्यवाद के परजीवी स्वभाव का निचोड़।
यही कारण है कि साम्राज्यवाद विषयक आर्थिक साहित्य में "सूदखोर राज्य" (Rentnerstaat) या महाजन राज्य आदि शब्दों का प्रयोग आम तौर पर होने लगा है। दुनिया मुट्ठी-भर महाजन राज्यों तथा बहुत बड़ी संख्या में ऋणी राज्यों में बंट गयी है। शुल्ज़े-गैवर्नित्ज़ कहते हैं, "विदेशों में जो पूंजी लगायी जाती है उसकी सूची में सबसे पहला स्थान उस पूंजी का है जो राजनीतिक रूप से निर्भर अथवा मित्र देशों में लगायी जाती है: ग्रेट ब्रिटेन मिस्र, जापान, चीन तथा दक्षिणी अमरीका को ऋण देता है। इस प्रसंग में उसकी नौ-सेना आवश्यकता पड़ने पर कुर्क-अमीन का काम करती है। ग्रेट ब्रिटेन की राजनीतिक
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