पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/१४१

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बता दें, कि यह भी एक कारण है कि अति-साम्राज्यवाद का सिद्धांत इतना बेतुका क्यों है)। इसमें तो संदेह नहीं कि प्राविधिक सुधारों का प्रयोग करने से उत्पादन की लागत में होनेवाली कमी और मुनाफ़े में वृद्धि परिवर्तन की दिशा में क्रियाशील होती है। परंतु गतिरोध तथा ह्रास की प्रवृत्ति , जो इजारेदारी की लाक्षणिकता है, काम करती रहती है, और उद्योगों की कुछ शाखाओं में, कुछ देशों में, कुछ समय के लिए उसका पलड़ा भारी हो जाता है।

अत्यंत विस्तृत, समृद्ध या सुस्थित उपनिवेशों पर इजारेदार स्वामित्व भी इसी दिशा में क्रियाशील रहता है।

इसके अतिरिक्त, साम्राज्यवाद कुछ थोड़े-से देशों में द्रव्य पूंजी का विपुल संचय होता है; जैसा कि हम देख चुके हैं यह संचय प्रतिभूतियों के रूप में १०० -१५० अरव फ़्रांक के बराबर था। इसलिए एक वर्ग का, बल्कि कहना चाहिए, सूदखोरों के एक सामाजिक स्तर का असाधारण रूप से विकास होता है, अर्थात् ऐसे लोगों का जो “कृपन काटकर" अपनी जीविका कमाते हैं , जो किसी भी कारोबार में कोई हिस्सा नहीं लेते हैं, जिनका पेशा ही हरामखोरी होता है। पूंजी का निर्यात जो साम्राज्यवाद का एक सबसे बुनियादी आर्थिक आधार है, सूदखोरों को उत्पादन-व्यवस्था से और भी पूरी तरह अलग कर देता है और पूरे देश पर परजीवी होने की मुहर लगा देता है जो समुद्र-पार के कई देशों तथा उपनिवेशों के श्रम का शोषण करके जीवित रहता है।

हाबसन लिखते हैं , “१८९३ में विदेशों में जो ब्रिटिश पूंजी लगी हुई थी वह इंगलैंड की कुल सम्पदा के लगभग १५ प्रतिशत के बराबर थी।"*[१] हम पाठकों को याद दिलायेंगे कि १९१५ तक यह पूंजी लगभग ढाई गुनी बढ़ गयी थी। आगे चलकर हाबसन कहते हैं ,


  1. *हाबसन, पहले उद्धृत की गयी पुस्तक, पृष्ठ ५९, ६० ।

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