दुनिया के बंटवारे के प्रश्न का विवेचन पूरा करने के लिए हम निम्नलिखित बात का उल्लेख और करेंगे। यह प्रश्न उन्नीसवीं शताब्दी के बिल्कुल अंत और बीसवीं शताब्दी के आरंभ में बिल्कुल खुले तौर पर तथा निश्चित रूप से स्पेनी-अमरीकी युद्ध के बाद अमरीकी साहित्य में उठाया गया और अंग्रेज़-बोएर युद्ध के बाद अंग्रेजी साहित्य में। जर्मन साहित्य ने भी, जो “बड़ी ईर्ष्या के साथ" "ब्रिटिश साम्राज्यवाद" को देखता रहा है , सुव्यवस्थित ढंग से इस तथ्य का मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। इतना ही नहीं यह प्रश्न फ्रांसीसी पूंजीवादी साहित्य में भी पूंजीवादी दृष्टिकोण से यथासंभव व्यापकतम तथा सुनिश्चित शब्दों में उठाया गया है। हम द्रियो नामक इतिहासकार के शब्दों को उद्धृत करेंगे जिन्होंने “उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में राजनीतिक तथा सामाजिक समस्याएं" नामक अपनी रचना के “बड़ी ताक़तें और दुनिया का बंटवारा" शीर्षक अध्याय में लिखा "पिछले कुछ वर्षों में, चीन को छोड़कर, भूमंडल के पूरे स्वतंत्र इलाके पर यूरोप तथा उत्तरी अमरीका की ताक़तों ने कब्जा कर लिया है। इस सवाल को लेकर अनेक संघर्ष तथा प्रभाव के हेर-फेर हो चुके हैं , जो निकट भविष्य में इससे भी भयंकर उथल-पुथल की पूर्व-घोषणा करते हैं। क्योंकि जल्दी करना आवश्यक है। जिन राष्ट्रों ने अभी तक अपने लिए बंदोबस्त नहीं किया है उनके लिए इस बात का खतरा है कि उन्हें अपना हिस्सा कभी भी न मिले और वे भूमंडल के उस शोषण में कभी भी हिस्सा न ले पायें जो अगली" (अर्थात् बीसवीं) "शताब्दी की एक मूलभूत विशेषता होगा। यही कारण है कि इधर कुछ समय से यूरोप तथा अमरीका अपने उपनिवेश बढ़ाने के , उन्नीसवीं शताब्दी के अंत की सबसे उल्लेखनीय विशेषता ‘साम्राज्यवाद' के बुखार का शिकार हैं।" आगे चलकर इस लेखक ने लिखा, “दुनिया के इस बंटवारे में, भूमंडल के खज़ानों तथा बड़े बाजारों की इस बेतहाशा खोज में, इस उन्नीसवीं शताब्दी में स्थापित किये गये साम्राज्यों की आपेक्षिक ताक़त इन साम्राज्यों की
१२१