चूंकि हम पूंजीवादी साम्राज्यवाद के युग की औपनिवेशिक नीति की चर्चा कर रहे हैं इसलिए यह बता दिया जाना चाहिए कि वित्तीय पूंजी और तदनुरूप वैदेशिक नीति, जो दुनिया के आर्थिक तथा राजनीतिक बंटवारे के लिए बड़ी ताक़तों का संघर्ष मात्र बनकर रह जाती है, राज्यों के परावलम्बन के अनेक संक्रमणकालीन रूपों को जन्म देती हैं। देशों के दो मुख्य समूह ही- एक तो वे जिनके पास उपनिवेश हैं और दूसरे उपनिवेश - इस युग की लाक्षणिकताओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते, बल्कि परावलम्बी देशों के वे विविध रूप इन लाक्षणिकताओं के द्योतक हैं जो कहने को तो राजनीतिक रूप में स्वतंत्र हैं पर वास्तव में वित्तीय तथा कूटनीतिक परावलम्बन के जाल में फंसे हुए हैं। हम परावलम्बन के एक रूप का-अर्द्ध-उपनिवेशों का- उल्लेख कर चुके हैं। एक दूसरे रूप का उदाहरण अर्जेन्टाइना की मिसाल में मिलता है।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद से संबंधित अपनी रचना में शुल्जे-गैवर्नित्ज़ ने लिखा है, "दक्षिणी अमरीका और विशेष रूप से अर्जेन्टाइना वित्तीय दृष्टि से लंदन पर इतना निर्भर है कि उसे लगभग एक ब्रिटिश वाणिज्यिक उपनिवेश ही कहा जाना चाहिए।"*[१] ब्योनस-आयर्स में आस्ट्रिया-हंगरी के कौंसल की १९०९ की रिपोर्ट को आधार बनाकर शिल्दर
- ↑ * Schulze-Gaevernitz, «Britischer Imperialismus und englischer Freihandel_zu Beginn des 20-ten Jahrhundertsv (बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ब्रिटिश साम्राज्यवाद तथा अंग्रेज़ी स्वतंत्र व्यापार - अनु० ), Leipzig, 1906, पृष्ठ ३१८ । Sartorius v. Waltershausen ने «Das Volksoirt- schaftliche System der Kapitalanlage im Auslande» (विदेशों में पूंजी लगाने की राष्ट्रीय आर्थिक पद्धति - अनु०) में यही बात कही है, Berlin, 1907, पृष्ठ ४६ ।
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