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अनुपम मिश्र


आते ही इंदिरा सरकार ने अब तक के अभिशाप को वरदान की तरह स्वीकार किया और पंचाट के जो पंच उसे विपक्ष की कुर्सी से कपटी दिख रहे थे, वे फिर परमेश्वर दिखने लगे।

अब इसे भगवान की ही कृपा मानना होगा कि सन् 80 से अब तक नर्मदा-विवाद के राज्यों में और केंद्र में इंदिरा कांग्रेस है, और साथ ही यह भी कि इन सभी जगहों में विरोधी दल बेहद सिकुड़ा हुआ है तथा सबसे बड़े महाजन विश्व बैंक ने इसके लिए पैसा देना मंजूर किया है।

तीन राज्यों से गुजरने वाली 1312 किलोमीटर लंबी नर्मदा नदी की घाटी के 'पिछड़ेपन' को दूर करने के लिए कुछ उच्च विचार हों, इन्हें अमल में उतारने की महंगी योजनाओं का ख़र्च जुटाने के लिए विश्व बैंक जैसा उदार महाजन हो, सारे 'टुच्चे' विवादों को निपटा चुका पंच परमेश्वर हो तो भला देरी किस बात की? भीमकाय बांधों को बांधने के लिए टेंडर खुल चुके हैं।

लेकिन इस बीच कुछ 'घटिया विचार' भी सामने आने लगे हैं। बहस चल पड़ी है, इन बड़े बांधों के नुकसानों, पर्यावरण पर इनके असर

और इनसे उजड़ने वाले हज़ारों लोगों के भविष्य को लेकर। अब तक एक सांस में गिनाए जाते रहे इनके लाभों पर भी कई विशेषज्ञों ने, संस्थाओं ने प्रश्न चिह्न लगाना शुरू कर दिया है। पंचाट के फ़ैसले के तुरंत बाद पहले कांग्रेस और फिर भाजपा द्वारा चलाए गए 'निमाड़ बचाओ आंदोलन' के क्षणिक उफान का अपवाद छोड़ दें तो सन् 80 से 85 तक नर्मदा घाटी में छाया सन्नाटा लगता है टूट रहा है। मध्यप्रदेश के जो अखबार पंचाट के फ़ैसले के बाद बेहद कट्टर बनकर इन बड़े बांधों को पूरा समर्थन कर रहे थे और जिस कारण उनकी प्रतियां, इन बांधों की डूब में आने वाले, क़स्बों, गांवों में जलाई गई थीं वे अखबार आज कह रहे हैं कि पंचाट के फ़ैसले में इन बांधों के पक्ष में कई मुद्दों पर सविस्तार

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