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अनुपम मिश्र


घास से हरे रंग की जाजम, दरी बिछा देती। पिछली कुछ पीढ़ियों ने घास के जो प्रकार खो दिए थे, उनकी स्मृति और बोलियों में घास और झाड़ियों के जो नाम गायब हो गए थे, वे एक-एक कर लापोड़िया के गोचर में लौटने लगे। विलायती बबूल हटा दिया गया, देसी बबूल बोया नहीं गया था, लेकिन नमी मिलते ही पुरानी दबी जड़ों में प्राण आ गए और जगह-जगह उपयोगी घास, पौधे और झाड़ियां बढ़ने लगीं। प्रकृति की स्मृति में यह मिटा नहीं था, इसलिए फिर लापोड़िया के समाज की स्मृति में भी ये नाम एक-एक करके वापस आने लगे।

अपने गोचर को सुधारने के इस संकल्प को लापोड़िया ने कर्म में बदला और फिर उसका विस्तार भी किया। आसपास के सभी गांव में युवा मंडल बनाए गए। सभी से संपर्क किया गया और गोचर, तालाब, पेड़ पौधों और वन्य जीवों को बचाने के लिए बैठकें की गईं, पदयात्राएं निकाली गईं। आस-पड़ोस के गांव से शुरू हुआ यह काम बाद में और आगे बढ़कर 84 गांव में फैल गया। देवउठनी ग्यारस से तालाब और गोचर पूजन का काम प्रारंभ हो जाता है और फिर जगह-जगह ऐसी पदयात्राएं, जन-जागरण के लिए निकल पड़ती हैं। सब का काम सबको साथ लिए बिना सध नहीं सकता। इसलिए गोचर आंदोलन में हर जगह इस बात का ध्यान रखा गया है कि कोई छूट न जाए। आज यदि कोई स्वार्थवश इस काम में शामिल नहीं हो रहा है तो यहां पूरा धीरज रखा गया है। उसे समझाया गया है कि उसका भी हित सार्वजनिक हित से ही जुड़ा हुआ है।

लापोड़िया वापस लौटे। शुरू से ही पूरे गांव को गोचर से जोड़ने की चाल और व्यवस्था बनाई गई। अभी पेड़ नहीं थे, लेकिन छोटी-छोटी झाड़ियां मज़बूत होने लगी थीं, उन्हें और अधिक सहारा देने के लिए

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