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गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया

इतना सब हो जाने के बाद चौके की बारी आई। इसे बनाने से पहले सबके साथ बातचीत की गई। सबने मन में काग़ज़ और ज़मीन पर खींची रेखाएं, नक़्शा ठीक से बसाया गया।

आज हमारे गांव जिस तरह से टूट चुके हैं, उनमें चौके के माध्यम से पूरे गांव को, किसानों को, पशुपालकों को जोड़ने का काम चुटकी भर में हो जाता, ऐसा मान लेना बहुत भोलापन होगा। इस काम को शुरू करते ही घास पनपने से पहले गांव में गंदी और स्वार्थी राजनीति पनप उठी। पूरे गांव की एकता को तोड़ते हुए कुछ लोग उठ खड़े हुए। उन्होंने चौके का विरोध किया। अफ़वाह फैल गई कि संस्था के लोग गोचर पर कब्जा करना चाहते हैं। बचे-खुचे पेड़ों को न काटने का जो संकल्प गांव ने लिया था, उसी पर इन लोगों ने कुल्हाड़ी मार दी। चुने हुए जन-प्रतिनिधि, गांव की पंचायत उनके साथ हो गई। पंचायत ने 16 सितंबर 1995 को मात्र दो हज़ार रुपए में पूरे गोचर में कटाई का ठेका उठा दिया। यह भी घोषणा उन्होंने की कि यदि गोचर को सुधारना है, उसका विकास करना है तो यह काम ग्राम पंचायत ही करेगी।

लेकिन सत्य गांव के साथ था, संस्था के साथ था, इसलिए इस बेहद अप्रिय प्रसंग में लोगों ने सत्य का आग्रह भी जता दिया-गोचर में सत्याग्रह शुरू हुआ। ठंड के दिन थे। दिनभर स्त्री-पुरुष पूरे गोचर में घूम-घूम कर उसकी रखवाली करने लगे। लेकिन दिन की रखवाली पर्याप्त नहीं हुई। तब गोचर बचाने वाले लोग ठंड की रात में अपने घरों को छोड़कर रज़ाई और कंबल लेकर गोचर में सोए। भविष्य में पूरा गांव चैन की नींद सो सके, इसके लिए 1995 की ठंड में गोचर के ये रखवाले खुले आकाश के नीचे बैठे रहे और बारी-बारी से पहरा देते रहे। बड़ी उम्र के लोगों के साथ युवा, महिलाएं और परिवार के छोटे बेटे-बेटियों ने भी अपने

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