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गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया


में एक थे श्री लक्ष्मण सिंह। गांव के ठिकानेदार, ठाकुर परिवार में जन्मे लक्ष्मण सिंह तब भी आदर के साथ 'बनाजी' कहलाते थे। उजड़े गांव के 'बनाजी' भी उखड़कर यहां से दूर चले गए थे।

लेकिन लापोड़िया गांव को 'बनाजी' से कोई बड़ा काम लेना था। इसीलिए बनाजी सन् 1988 में इसी प्रदेश के अलवर ज़िले में काम प्रारंभ कर रही संस्था तरुण भारत संघ में जा पहुंचे। यहां आने से पहले वे थोड़े समय के लिए भारत सरकार के खेल और युवा मंत्रालय द्वारा चलाए जा रहे नेहरू युवा केंद्र के कामों से भी जुड़े रहे थे। उस माध्यम से अपने गांव में शायद बिना ज्यादा कुछ सोचे उन्होंने गांव के युवकों को संगठित कर 'ग्राम विकास नवयुवक मंडल' की स्थापना भी कर दी थी। ऐसे नवयुवक मंडलों की कोई कमी नहीं थी और उनसे होने वाला काम भी कुछ नया नहीं कर पाया था। फिर भी सन् 1984 से पहले के दौर में लक्ष्मण जी ने युवकों को संगठित कर श्रमदान के माध्यम से लापोड़िया के अलावा आसपास के 10 गांव में कुछ काम किए थे और कभी स्कूल न जा सकने वाले बच्चों के लिए एक स्कूल भी चलाया था।

तरुण भारत संघ में लक्ष्मण सिंह ने राजेंद्र सिंह जी के साथ काम करते हुए अकाल से उजड़े गांव में पानी का छोर पकड़कर जीवन की खुशी लाने का रहस्य जानना शुरू किया। लेकिन फिर उनको लगा कि इस रहस्य की बाक़ी परतें खोलने का प्रयोग उन्हें अपने उजड़े गांव में ही लौटकर करना चाहिए। लापोड़िया के 'बनाजी' यानी लक्ष्मण सिंह वापस लापोड़िया लौटे। उनके पीछे धीरे-धीरे लापोड़िया का पुराना वैभव भी लौटने लगा-वह वैभव जो यहां की कुछ पीढ़ियों की तरह बाहर पलायन कर गया था।

गांव छोड़ने से पहले लक्ष्मण सिंह जी ने गांव के युवकों के लिए खेलकूद के माध्यम से जो साधारण संगठन बनाया था, उसी संगठन को

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