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अनुपम मिश्र


पूरा अपना काम रंग-बिरंगा चला कर दिखाएंगे। तो ये जो एक आदत थी लोक बुद्धि की वह हम धीरे-धीरे भूलते चले गए। आपने परिचय में सुना कि हमारी एक किताब का नाम है-'राजस्थान की रजत बूंदें' वह शब्द हमें आज जिसको हम अनपढ़ कहेंगे उससे मिला। कितना सेंटीमीटर पानी गिरता है, कितने इंच गिरता है ये पूछते हैं तो जवाब मिलता है वहां पर कि रजत बूदें गिरती हैं। चांदी की बूंदे उनमें से जितनी रोक लो आपके काम आएंगी। एक भी कण बर्बाद नहीं जाने देना। विज्ञान की दृष्टि उसको इंच और सेंटीमीटर में नापेगी और हमारा समाज उसको रजत कणों की तरह देखता था। कोई शिकायत मन में नहीं कि तुमने प्रभु क्या थोड़ा-सा पानी गिराया। असंख्य, करोड़ों रजत बूंदें गिराई उसमें से हम जितनी रोक सके उतनी रोकें।

आप सभी लोग म.प्र. के शहरों में एक मोहल्ला और गली को जानते होंगे, सर्राफ़ा। वहां पर सवेरे जैसी झाड़ लगती है वैसी झाड़ शायद राष्ट्रपति भवन में भी नहीं लगती होगी। सर्राफ़े को साफ़ कौन करता है? म्युनिसीपेल्टी का सफ़ाई कर्मचारी साफ़ नहीं करता। समाज के सबसे ग़रीब माने गए लोग तसला लेकर आते हैं, झाड़ लेकर आते हैं। एक-एक कण साफ़ करते हैं क्योंकि उसमें छोटा-सा चांदी और सोने का टुकड़ा मिल जाएगा उनको जो सुनार ने फूंक के इधर-उधर बिखेर दिया होगा। तो पानी को इस ढंग से देखने वाला समाज कि एक कण भी कहीं जाने न दें। हम सब कुछ करके देख लेंगे। ये सब चीज़ें हैं। मुझे काम करने का मौक़ा मिला। मैं आपका समय ज़्यादा नहीं लूंगा बस इतना कहूंगा कि इसको शोध की तरह मैंने नहीं देखा। इसको श्रद्धा से देखा। शोध में तो पांच साल का प्रोजेक्ट होगा। मुझे पैसा मिलेगा मंत्रालय से तो मैं करूंगा, नहीं मिलेगा तो मैं नहीं करूंगा। लेकिन अगर हम श्रद्धा रखेंगे तो हम उस काम को सब तरह की रुकावटों के बाद भी करके आगे

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