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अनुपम मिश्र

पिछले लंबे दौर से हम लोगों ने देखा है कि हमारे जैसे देश प्रायः अपने समाज को दुत्कारने का काम कर रहे हैं। ये एक सर्वसम्मत विचारधारा बन गई है, अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं के नाम लेने की ज़रूरत मुझे नहीं दिखती। पर्यावरण का काम जो मैंने 30-35 साल में किया, मुझे लगा कि हम अपने समाज को पिछड़ा, अनपढ़ कहते हैं, उसके लिए साक्षरता की कैसी योजनाएं बनाएं, उसकी चेतना कैसे जगाएं-इसी में चिंतित रहते हैं। आप और हम बहुत सारी सामाजिक संस्थाओं के नामकरण भी देखेंगे तो उसमें ये चेतना वगैरह नाम आ ही जाते हैं। जागृति आएगी। बाक़ी सब सो रहे हैं, मैं जगा हूं, इसलिए मैं आपको जगाऊं। आप सबकी कोई चेतना नहीं है। मैं कोई चेतना का केंद्र बनाऊं। इस तरह के बहुत नामकरण जाने-अनजाने में, शायद अनजाने में ही हुए हैं। कोई दोष की तरह न भी देखें उसको, पर ये बहुत हुआ है। कितना बड़ा देश है। मैं तो पूरा घूमा नहीं। हमारे पास कभी ऐसे साधन नहीं रहे। लेकिन, श्रद्धा से अगर देखें तो बहुत बड़ा है। हम चौथी हिंदी से पढ़ते रहे कि कुछ पांच लाख गांव हैं। इस सबको चलाने में हमें संविधान से जो कुछ चीज़ें मिली हैं तो प्रधानमंत्री तो उसमें से एक की ही गिनती में आता है। अभी तक यह सौभाग्य है। मंत्री पहले कम होते थे, अब बहुत ज़्यादा भी होने लगे हैं। गठबंधन की मजबूरी वगैरह बताते हैं लोग, अच्छे-अच्छे लोग। तो इन सबकी संख्या भी अगर आप जोड़ लें तो जो शुभ संख्या है वह 101 हो भी जाए तो क्या यह पांच लाख गांवों के देश का संयोजन कर पाएंगे ये लोग? बहुत अच्छे अधिकारियों के भी नाम कभी-कभी हम अखबारों में सुनते हैं। इक्के-दुक्के नाम होते हैं। वे भी तबादलों में भागते-फिरते हैं यहां-से-वहां। कुछ समाज सेवकों के नाम कभी-कभी आपके सामने आ जाएंगे। कितने होंगे? इसलिए मुझे लगता है कि ये जो सारा ढांचा है वह पांच लाख गांव के इस बड़े देश

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