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अनुपम मिश्र


रूपी बीज को जब तक हम ठीक नहीं कर पाएंगें, ऐसे पेड़ समय-समय पर आएंगे, ऐसे हल भी समय-समय पर आएंगे जो वास्तव में हल न करके हमारी समस्याएं बढ़ाएंगे। उस बढ़ी हुई समस्या को समझने का विवेक भी ख़त्म हो गया है। नहीं तो सुबबूल लगने के दो साल बाद पता चलता कि यह काम गलत है। उसने भी दस साल लिए। विलायती बबूल को तो अभी समझने का भी दौर नहीं है। समाज का एक हिस्सा उससे त्राही-त्राही कर रहा है। लेकिन जिसे नीति निर्धारक कहते हैं उसका अभी भी ध्यान नहीं। लेकिन ग्वालों को जिनकी गाय उसे खा नहीं पाती हैं, या उसको खाकर ज़हरीली हो जाती हैं, उनको रोज़ ध्यान में आ रहा है। कच्छ में रोज इसे खाते-खाते गाय मर रही हैं। समस्या सब जगह है लेकिन उसको आज स्वीकार करने लायक़ तक विवेक नहीं बचा। जो अच्छे वन विज्ञानी हैं उनके ध्यान में नहीं आ रहा है कि इसके पीछे क्या विज्ञान है; यह तो हमारे काम का नहीं है। हम जिस चीज़ को अपनी थाली में खा न सकें, उसको लगातार लगाते चले जाएं। वही बात आपको सोयाबीन में मिलेगी। उसकी दाल नहीं बनती। फिर भी हम उसे बोए जा रहे हैं-पश्चिम के बाज़ार के लिए।

हमारे समाज में बराबर यह रेखांकित किया जा रहा है कि भारतीयों में राष्ट्रीय चरित्र व नागरिक बोध का गहरा अभाव है ऐसे में एक स्वस्थ पर्यावरणीय संरचना व चेतना हमारे समाज में कारगर तरह से व्याप्त हो सके उसके लिए आप किस तरह के नागरिक उपायों को सुझाना चाहेंगे?

समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा बिल्कुल किनारे कर दिया गया है। समाज के बड़े हिस्से को हाशिए पर कर दिया जाए और बहुत थोड़ा सा हिस्सा पूरी जगह घेर ले और वही मुख्यधारा कहलाने लगे, तब ये दिक्कतें शुरू होती हैं। इसलिए मुझे लगता है कि नागरिक बोध से भी काम नहीं

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