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अनुपम मिश्र


अपने विचारों के कारण न सिर्फ़ अपने यहां बल्कि पूरी दुनिया में जैव विविधता को नष्ट किया है, उन्होंने यह नया शब्द भी निकाला है। शब्द को आए हुए भी कुछ चार-पांच साल से ज़्यादा नहीं हुआ। इसलिए अच्छा ही है कि इसके कारण कुछ बच-बुचा जाए। लेकिन जो आप का मुख्य सवाल है वह बहुत महत्वपूर्ण है-किसी भी समाज में यह स्थिति जब सब विषयों में होती है तभी वह बचता है। विविधता सिर्फ जैवीय नहीं। हमारे यहां ऐसा शब्द नहीं पर ऐसा काम कर रहा है। चाहे अन्न में हो, वनस्पति में हो। उसने उसको जैव विविधता नहीं कहा है। बोलियों में इसके लिए शायद कुछ शब्द मिल जाएंगे तो मुझे नहीं पता। खोजना चाहिए। लेकिन अपने यहां एक पुराना शब्द अन्नब्रह्म भी है। उसमें सब कुछ आ जाता है। उसमें हर तरह का जीवन आता है। सबका विचार भी समेटता है। इसी तरह यहां तीन हज़ार-चार हज़ार या 36 हज़ार धान के बीज थे, गेहूं के बीज थे, इन्हें तो हर वर्ष लाखों किसान लाखों खेतों में बोते थे। वास्तव में वे कृषि पंडित थे। उन्होंने यह देखा कि एक गांव में जितने अधिक तरह के धान हम बोएंगे उतना कम कीड़ा लगने वाला है। मिट्टी, पानी, हवा बदलती है तो बीज भी बदलते गए।

सांस्कृतिक विविधता भी उसमें शामिल थी। सहिष्णुता उसमें शामिल थी। मुख्य तो सहिष्णु शब्द रहा कि सबका आदर करना है। सहना नहीं है। सहना और सहिष्णु होना इसमें अंतर है। इज़्ज़त भी करनी है। इनको भी साथ लेकर चलना है। सब बीजों को सब जीवों को बचाना है। हम ही सृष्टि के केंद्र नहीं हैं। इसीलिए पशुओं में भी ऐसा नहीं रहा कि कोई एक को रखा, बाकी को भूल गए। मरुभूमि में और राजस्थान के एक बहुत बड़े हिस्से में धराड़ी नाम की एक प्रथा है। वह धारण से बनी है। हर एक गोत्र के, जाति के जिम्मे पांच-पांच पेड़ कर दिए जाते थे। सब अपने-अपने पेड़ों की रक्षा तो करते ही थे, दूसरों को

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