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अनुपम मिश्र


होंगी! संस्कृति एक ही होगी-मरुभूमि की भी और महाराष्ट्र की भी। लेकिन उनके बीच में अंतर बराबर दिखेंगे।

हम स्वदेशी शब्द सुनते हैं। जीवन शैली भी है। स्वदेशी का मतलब केवल धोती कुर्ता या साड़ी पहनना नहीं। उस इलाके की सब चीज़ों में मन रम जाए। वहां की जो चीज़ें हैं उनको अपने भोजन में शामिल करना, उनको अपनी पढ़ाई में शामिल करना यह सब स्वदेशी का हिस्सा है। फिर एक स्थिति ऐसी आई हमारे समाज में कि अपने आसपास की चीज़ों का ध्यान ही नहीं रखना है। उनसे हमारा जीवन नहीं चल रहा। अब जो इस समय हमारे आधुनिक लोग हैं उनका सुबह का नाश्ता, दोपहर का भोजन, रात का खाना हो सकता है दो सौ चार सौ किलोमीटर दूर से आता हो। उनके कपड़े हांगकांग के बने होंगे कि सिंगापुर के। एक अगर औसत अमेरिकी या यूरोपीय व्यक्ति के जीवन का हम विश्लेषण करें तो अधिकांशत: उनकी चीजें आस-पास से न होकर दूर-दूर से आ रही हैं। यानी वे अपने निकटतम पर्यावरण पर आधारित न होकर अब दूर-से-दूर के पर्यावरण पर आधारित हैं। चीजें बहुत दूर से आती हैं और उस दूरी में भी सघन रूप से निचोड़ी जाती हैं। इस कारण वहां का पर्यावरण बुरी तरह बर्बाद होता है। लेकिन दूर बैठे लोगों को वहां की बर्बादी से कोई लेना-देना नहीं हैं। कहीं से कुछ भी आ सकता है। ताज़ा फल अपने यहां तो फिर भी केला भुसावल का है। लेकिन अमेरिका वगैरह में तो 'बनाना स्टेट' से आता है। ये विशेष देश हैं, उनके यहां से केले की फ़सल पूरी-की-पूरी उखाड़ कर अमेरिका की खाने की टेबल पर आती है। बड़ी-बड़ी कंपनियां टमाटर की चटनियां वग़ैरह बनाती हैं। वे इन देशों को गिरवी रखती हैं। वहां से टमाटर पैदा होता है क्योंकि वहां मज़दूर सस्ता है और हवाई जहाज़ से यहां पटका जाता है उनकी टेबलों पर तो, इससे अपने पर्यावरण के प्रति कोई लगाव नहीं बचता है।

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