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पर्यावरण का पाठ


नहीं चाहिए। सारा जोर नौकरियों का पढ़ाई पर है। जो कि होना भी चाहिए। लेकिन वह बहुत कम लोगों को रोजगार दे पाती है और उसके बदले बहुत सारे लोगों का रोज़गार नष्ट करती है। एक-सा पाठ्यक्रम होने के नाते। गुजरात में नए-से-नए पानी के प्रबंध के साथ पुराने प्रबंध को भी कम-से-कम परक तो माना जा सकता था। पर उसको उन लोगों ने उसमें से हटा दिया। और एक बार जब हम बुरी तरह से ठोकर खा चुके हैं तो हमें लगता है कि इसकी तरफ ध्यान जाना चाहिए।

अभी तो पर्यावरण का विषय भी उतना ही नक़ली है जितना बाक़ी पढ़ाई का विषय है। उसका अपने लोगों से कोई संबंध नहीं है।

अंग्रेज़ों के आने से ठीक पहले हमारी शिक्षा व्यवस्था क्या थी इसके बारे में आज कोई जानकारी नहीं बची है। एक तरह से पूरी स्लेट साफ़ कर दी गई है और फिर उसमें अंग्रेज़ी की 'बारहखड़ी' लिखी गई है। कभी-कभी उस स्लेट के प्रति हमारे मन में शुभ इच्छा जग जाती है तो हमें लगता है कि हमारे यहां ज्ञान की बहुत बड़ी मौखिक परंपरा थी। मौखिक परंपरा थी या लिखित थी? इसके भी प्रमाण नहीं हैं अभी अपने पास। धर्मपालजी नाम के एक वरिष्ठ गांधीवादी हैं, उन्होंने इस पर कुछ बुनियादी काम किया है।

उन्होंने मद्रास प्रेसीडेंसी में अंग्रेजों के आने से ठीक पहले कैसे स्कूल चल रहे हैं, उसमें क्या विषय पढ़ाया जाता है, कौन उनमें पढ़ने आते हैं इस सबका बहुत विशेष अध्ययन किया है। उनकी शैली बहुत अच्छी है 18-19 साल वे लंदन में रहे। वहां की इंडिया ऑफ़िस में लाइब्रेरी में राज लिटरेचर सबसे अधिक भरा पड़ा है, अंग्रेज़ों के अपने हाथ के हिंदुस्तान के बारे में नोट्स संस्करण सरकारी डायरी वगैरह। उन्होंने यह सब निकाला है। आगे भूमिका दी है 70-80 पन्ने की। बाक़ी पीछे पूरा दस्तावेज़ है। उस दौर में लंदन से आए अंग्रेज़ अधिकारी स्कूल का वर्णन

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