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पर्यावरण का पाठ


एक मित्र हैं पौड़ी-गढ़वाल में-सच्चिदानंद भारती। विदेशी पैसा नहीं लेते, सरकार से भी नहीं लेते। उनका कहना है कि अगर इस गांव का जंगल अच्छा करना है तो पूरे गांव की ज़िम्मेदारी है उसके लिए पैसा इकट्ठा करना, काम करना हर तरह से। इसलिए पूरे समय के सामाजिक कार्यकर्ता न होकर एक स्कूल में पढ़ाते हैं, वहीं से उनकी तनख्वाह आती है। आजीविका सामाजिक काम से वे नहीं लेते हैं। पर 125 गांव में काम करते हैं। यह कोई कम विस्तार नहीं है। लेकिन न तो उनका दफ्तर है और न घर में कोई ऐसी फ़ाइल है जिसमें 125 गांव की सूची दिखे। किसको दिखाना है? पैसा तो किसी से लिया ही नहीं है। यह बहुत हिम्मत का काम है। ऐसे हिम्मती प्रयोग अभी भी अपने यहां बिरले हैं। तो इसके बीच में कम-से-कम यह समझौता करें कि पैसा वहां से आए लेकिन अक्ल तो यहां की लगाओ। वह तो अपने पास है।

अर्धसदी के परिसर का पुनरावलोकन करने पर हम पाते हैं कि इन 50 वर्षों में अनेकानेक आंदोलन हुए जिन्होंने एक क्षणिक हलचल व विचारोत्तेजना को तो जन्म दिया लेकिन राजनीति व व्यापक नागरिक-निष्क्रियता के चलते अंततः लुप्त हो गए। पर्यावरण संकट व इसकी चेतना के संदर्भ में आंदोलनों के स्वरूप व इनकी प्रासंगिकता पर आपकी राय क्या है?

कोई भी समस्या उठती है तो धीरे-धीरे उसको कुछ लोग समझते हैं। फिर उसके बारे में कुछ अपनी तरफ़ से काम शुरू करते हैं। आंदोलन को बनने में भी थोड़ा समय लगता है। कभी अचानक वह किसी एक घटना की प्रतिक्रिया में निकल आता है। जैसे चिपको के बारे में बात करें। हिमालय में वन कटे और उसका गांवों पर असर, बाढ़ पर असर और अकाल पर असर पड़ा, यह सब बहत लंबे समय तक लोगों ने देखा। लेकिन आंदोलन एक झटके में शुरू हुआ। वहां खेल-कूद का सामान

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