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अनुपम मिश्र


के कोर्स में देखने को नहीं मिलेगा। यह सब काम राजस्थान के वन-विभाग के बहुत से उन लोगों को जो अच्छे सहृदय लोग हैं, जो अपने समाज के लिए आज कुछ करना चाहते हैं तो सोशल फ़ॉरेस्ट्री के माध्यम से कुछ करते हैं, वह वेस्ट लैंड डेवलपमेंट के माध्यम से करना चाहते हैं। ओरण जैसी मज़बूत परंपरा उन्हें याद नहीं आती। ये विचार नए-नए हैं। अब ये सामयिक हैं तो ज़रूर जोड़ो। लेकिन किसमें? मुख्य आधार है उसमें जोड़ना होगा, उसे मिटा कर नहीं जोड़ सकते। होता यह है कि आज उसको मिटा दिया जाता है, और फिर अपनी एक संस्था और आंदोलन के साथ एक नया विचार लेकर हम चले आते हैं। ऐसे में बहुत हुआ तो ग्राम समाज एक मजदूर की तरह चाकरी करता है। मज़दूर शब्द बुरा लगे तो एक और शब्द हितग्राही लें। लेकिन वह मालिक की तरह शामिल नहीं हो सकता। इसलिए मेरा निवेदन है कि नए शास्त्र की रचना की उसमें गुंजाइश कम होगी। लोगों ने अगर काम बहुत किया है तो उसे नया या पुराना कहकर छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि अगर प्रकृति का स्वभाव नहीं बदला है तो आपको फिर उन इलाकों में जंगल उसी तरह से रखने चाहिए जो कुछ साल भर चलें, कुछ दो-तीन साल में विश्राम लेकर फिर से जीवित हो जाएं। अकाल से लड़ने की तैयारी उसी तरह करनी पड़ेगी। ऐसे वन, ओरण आपको जैसलमेर बाड़मेर वगैरह में बड़ी तादात में मिलते हैं। उतने संपन्न अनुभव को आज हम ख़ारिज कर देते हैं। इसलिए मैंने कहा कि पहले हमको शास्त्र समझना पड़ेगा फिर उसमें हम नया जोड़ घटा सकते हैं। तो फ़िलहाल मुंशी की भूमिका ज़्यादा विनम्र व व्यावहारिक है। इसमें समाज का सम्मान भी है।

पर्यावरण और भाषा में मैं अंतर नहीं करता। वह एक दूसरे से निकली हुई चीज़े हैं। जिस इलाके में अगर समुद्र की लहर टक्कर मारती है तो

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