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पर्यावरण का पाठ


रचने का स्वतंत्र संसार नहीं दिखता मुझे। उतनी मेरी हैसियत भी नहीं है। जो कुछ भी मैंने किया अगर आप इन दोनों किताबों के संदर्भ वाले हिस्सों को देखेंगे तो उसमें बिल्कुल ऐसे लोग है जिनको आज हम हाशिए पर चले गए लोग कहते हैं। उसमें आपको 'विशेषज्ञ' के नाम पते नहीं मिलेंगे, किसी ग्वाले का मिलेगा, किसी सुथार का पता मिलेगा। उन सबसे जितना सीखने को मिला है उसे हमने उनके नाम पते समेत उन किताबों में दर्ज करके वापस किया है। यह कोई विनम्रता के नाते नहीं कह रहा परंतु कुछ समय तो हमको अपने समाज में यह वातावरण बनाना चाहिए कि हम विशेषज्ञ नहीं हैं। इस समाज के बेटे-बेटी हैं। इस समाज के लिए मुंशीगिरी का काम कर सकते हैं। उसको अलग से नेतृत्व देने की फ़िलहाल हमारे में गुंजाइश नहीं है। उसने इतना बड़ा काम किया है, उस पर कुछ धूल चढ़ गई है। ठीक से झाडू-पोंछे का काम करना चाहिए। इसमें नया शास्त्र नहीं आता। अगर कुछ सामाजिक तौर पर जोड़ना-घटाना हो तो वह भी एक अच्छे मुंशी का काम मानकर आप कर सकते हैं। एक सिद्धांत के तहत समझने की गुंजाइश है। पर उससे कुछ नया रचने की योग्यता आ जाती हो, ऐसा मुझे अभी भी नहीं लगता है।

मरुभूमि में पानी के अलावा वन/ओरण भी महत्वपूर्ण चीज़ है। जिन लोगों ने इसका विचार किया, उसे मरुभूमि में उतारा उसको मंदिर के साथ जोड़ा। एक ही गांव में, 4-5 तरह के वन मिलेंगे। सबका उपयोग अलग-अलग है, नाम अलग है। कुछ पूरे साल-भर खुले रहने वाले जंगल हैं। कुछ एक विशेष परिस्थिति में खोले जाएंगे तो कुछ बहुत भयानक अकाल में ही खोले जाएंगे। प्रकृति का स्वभाव बदलता है। उस बदलाव में भी समाज ने एक छंद ढूंढ़ा होगा। शायद छोटी-बड़ी ठोकर भी खाई हो। फिर समाज ने अपनी ठोकरों से बचने के इंतजाम बहुत पुख्ता किए। लेकिन यह सब काम आपको सबसे अच्छे पर्यावरण

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