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अनुपम मिश्र


था कि यह बहुत बड़ा समुद्र है; हमको दो-चार बूंदे मिली हैं हम पूरा नहीं कर पाएंगे। हमारी संस्था गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव हम लोगों को सब चीजें समझाते रहे पिता की तरह। उन्होंने हम लोगों को इस काम में डाला। वे बार-बार कहते थे-तुमने इतनी सब चीजें इकट्ठी की हैं, तुम किताब क्यों नहीं लिखते। मेरी कोशिश यह रहती थी जितना हो सके इसको और अधिक समझें। ऐसा न लगे कि 'अध-जल गगरी छलकत जाए'। हमारा पानी का काम छलकना नहीं चाहिए। उसमें से जल-दर्शन होना चाहिए। हमने यह माना कि यह समाज का कुछ हज़ार साल का काम है। हम तो इसको सिर्फ 100 पन्नों में समेटने का आरंभिक प्रयास मात्र कर रहे हैं।

हिंदी में पर्यावरण-संबंधी साहित्य का परिदृश्य उल्लेखनीय नहीं कहा जा सकता, ऐसे में आपकी दोनों पुस्तकें न केवल मील का पत्थर साबित हई है बल्कि ताज़ा हवा के झोंके की तरह हैं। बीसवीं सदी के भारतीय परिसर में पश्चिमी तर्ज़ व अंग्रेज़ी का बोलबाला रहा है। ऐसे में इन दोनों पुस्तकों को हिंदी में लिखना एक बड़ा जोखिम व चुनौती थी। लेकिन यह देखकर प्रीतिकर आश्चर्य होता है कि दोनों पुस्तकें व्यापक पाठक समाज के विचार व संवेदना का हिस्सा बन गई हैं और फिर एक दूसरे छोर पर ऐसा भी लगता है कि पुस्तकों को सिर्फ़ हिंदी में ही लिखा जा सकता था। क्योंकि आपकी पुस्तकें इस बात का तर्कसम्मत साक्ष्य देती हैं कि भारत की लोक विरासत और जातीय चेतना अपने भाषा-संसार व समझ में समृद्ध व स्वावलंबी है। इसी बिंदु पर आपका यह कथन बिल्कुल सटीक लगता है कि 'हमने जल प्रबंधन के क्षेत्र में नई-नई शब्दावली ईजाद करके गांव के आम आदमी को ठगा है।'

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