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अनुपम मिश्र

उनकी नीयत दो उदाहरणों में साफ़ हो जाती है। अमीर देशों में फलों का धंधा करने वाली 'यूनाइटेड फूड कंपनी' ने पिछले दौर में केले की लुप्त हो रही क़िस्मों के संवर्धन का झंडा उठाया था। कंपनी ने केलों की तीन-चौथाई क़िस्मों की रज जमा कर ली। इससे उसे जो कुछ नए प्रयोग करने थे कर लिए और फिर पिछले साल इन्हीं दिनों में एकाएक कह दिया कि अब वह केलों की रज का संवर्धन बंद कर रही है। इसी तरह रबर टायर आदि का धंधा करने वाली फ़ायरस्टोन कंपनी ने एशिया, ब्राज़ील और श्रीलंका से रबर की लुप्त हो रही 700 क़िस्मों की रज जमा की और फिर बहुत दुख के साथ घोषणा की कि कुछ 'अपरिहार्य' कारणों से रबर-रज शोध बंद की जा रही है। ये उदाहरण हांडी के दो चावल हैं, बीजों के सौदागरों की पूरी हांडी ऐसे क़िस्सों से भरी पड़ी

बीजों की रज पर क़ब्ज़े का मतलब है-आपके-हमारे खेतों में बोए जाने से लेकर काट कर बेचे जाने तक के हर फ़ैसले पर किसी और का नियंत्रण। रज हथिया लो, सब कुछ हाथ में आ जाएगा। बीजों की रज में छिपी है विराट सत्ता और अथाह संपत्ति। लेकिन यह ऐसे ही नहीं मिलेगी, इसलिए जैसे मिलेगी. उसका भी इंतजाम किया जा रहा है। ये सब दादा कंपनियां अपने-अपने इलाकों में बीज-कानून पास करवा रही हैं। इससे उनके हाथों में किसी भी विशिष्ट किस्म के बीजों का एकाधिकार आ जाएगा-पौधों की आनुवांशिकता पर उनका हक़ हो जाएगा। वे इस पर अपनी क़ीमत लगा सकती हैं, रॉयल्टी कमा सकती हैं। 'प्लांट ब्रीडर्स राइट' नामक यह बेहद ख़तरनाक क़ानून दुनिया के बीजों को इन कंपनियों की झोली में डाले दे रहा है।

बीजों में इन कंपनियों की रुचि जगने के कुछ और भी मिले-जुले कारण हैं। विलियम टेवेलस एंड कंपनी ने तो इस परे मामले पर एक मोटा पोथा ही तैयार कर लिया है-'द ग्लोबल सीड स्टडी' नाम के इस

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