महाराज ने कहा-“घांघूजी, इसका रक्त बंद होना चाहिए। देखिए, सिर से अब तक रक्त वह रहा है । और, पार्श्व का यह घाव भी भयानक है।" इसके बाद दोनों व्यक्तियों ने उसके सभी घाव बांधकर उसे स्वस्थ किया। फिर वे सलाह करने लगे-"अब इसे कहां ले जाया जाय ? समय कम है और हमारा गंतव्य पथ लम्बा ।" युवक ने स्वयं कहा-“यदि मुझे घोड़े पर बैठा दिया जाय, तो मैं मजे में चल सकूँगा।" "क्या निकट कोई गांव है ?" "है, पर एक कोस के लगभग है।" "वहां कोई मित्र है ?" "है। वहां मेरी बहन का घर था, बहनोई हैं।" युवक का स्वर कंपित था। महाराज ने कहा-“वहिन नहीं है ?" "नहीं।" युवक का कंठ अवरुद्ध हुआ। उसके नेत्रों से झर-झर आंसू बहने लगे । वह फिर बोला-"उसे आज तीसरे पहर विदा कराके घर ले आ रहा था। बहनोई उस बाग तक साथ आए थे। उन्हें लौटते देर न हुई, ज्यों ही हम लोग इस खेड़े के निकट पहुंचे, कोई पांच सौ यवन सैनिकों ने धावा बोल दिया। मेरे साथ केवल आठ आदमी थे। शायद सभी मारे गए। मैंने यथासाध्य विरोध किया, पर कुछ न कर सका, वे बहन का डोला ले गए। मैंने मूच्छित होने से पूर्व अच्छी तरह देखा, पर मैं तलवार पकड़ ही न सका, फिर मेरी तलवार टूट भी गई थी ।" युवक उद्वेग से मानो मूर्छित हो गया। महाराज ने होंठ चवाया । एक बार उन्होंने अपने सिंह के समान नेत्रों से उस चोर- लालटेन के प्रकाश में चारों और देखा-टूटी तलवार, वर्धा, दो-चार लाशें और रक्त की धार । , mr
पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।