पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/४८

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समान हुआ कि उसने मुगल साम्राज्यको भस्म ही कर दिया। वास्तव में सह्याद्रि की यह दावाग्नि शताब्दियों से गहराई में दबी हुई थी। मुगल साम्राज्य पर सिखों के, राजपूतों के, बुन्देलों के, जाटों के और दूसरी सत्ताओं के जो धक्के लगे, वे तो मुगल साम्राज्य की दीवारों को केवल हिलाकर ही रह गए, किन्तु सह्याद्रि की ज्वाला ने मुगल-तस्त को भस्म ही कर दिया ।महाराष्ट्र की भूमि का पश्चिमी भाग बहुत रूखा है, वहाँ के निवासियों को पेट भरने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती थी, वे गङ्गा और यमुना के किनारों पर रहने वाले लोगों की तरह हल जोत कर आसानी से अन्न न उपजा सकते थे। उन दिनों महाराष्ट्र की आवादी छोटी थी, न बड़े शहर थे न मालदार मंडियों । लोग या तो खेती करते थे या फौज में भर्ती होकर लड़ते थे। इस प्रकार प्रकृति ने उन्हें परि- श्रमी और कष्ट-सहिगु बना दिया था। दक्षिण निवासियों की स्वाधीनता की रक्षा कुछ प्राकृतिक कारणों से भी होती रही । भारत पर मुसलमानों का आक्रमण उत्तर के पर्वतों से हुआ । इसलिए आक्रमणकारियों का सबसे अधिक प्रभाव पंजाब पर पड़ा और मध्य प्रदेशों तक उसका वेग कायम रहा। परन्तु दक्षिण पहुँचते-पहुँचते यह वेग निर्बल हो गया, इसी से जब उत्तर भारत में मुगल साम्राज्य का प्रताप तप रहा था, तब भी दक्षिण में विजयनगरम् जैसा जबरदस्त साम्राज्य प्रदीप्त था । मुसलमान विजेता दक्षिण में शताब्दियों तक स्थायी रूप से पांव न जमा सके । और जब दक्षिण में मुसलमानों की छोटी-छोटी रियासतें कायम होगई तो उन्होंने उत्तर भारत की तरह वहाँ के हिन्दू निवासियों की आत्मा को नहीं कुचला । वे तो उनके सहारे पर ही जीवित रहती रहीं। बीजापुर, गोलकुण्डा या अहमदनगर के शासकों को अपनी शक्ति कायम रखने के लिए मराठा सरदारों और मराठा सिपाहियों से सहायता लेनी पड़ती थी और यही कारण था कि दक्षिण में मुसलमानी राज्य की जड़ें गह- ४६