"ताना तैयार है, मैंने उसे गुरु-दीक्षा दे दी है।" फिर कहा- "वत्स!" युवक ने गुरु की ओर अांखें उठाई। वे अब भी आँसुओं से तर थीं। "शान्त हो, देखो, सदैव कर्तव्य समझ कर कार्य करना । फल की चिन्ता न करना।" युवक चुप रहा। "यदि फल की आकांक्षा करोगे, तो धैर्य से च्युत हो जाओगे और कदाचित् कर्तव्य से भी।" "प्रभो, मैं अपनी भूल समझ गया।" "जाओ पुत्र, महाराज की सेवा में रहो, विजयी वनो। भारत के दुर्भाग्य को नष्ट करो । नवीन जीवन, नवीन युग का प्रवर्तन करो । धर्म, नीति, मर्यादा और सामाजिक स्वातन्त्र्य के लिए प्राण और शरीर एवं पदार्थों का विसर्जन करो।" युवक ने गुरु-चरणों में मस्तक नवाया । संन्यासी के नेत्रों में आँसू आ गए। उन्होंने कहा-"वत्स, जाओ, जाओ। सन्यासी को अधिक प्राप्यायित न करो । वीतराग सन्यासी किसी के नहीं।" इसके वाद उन्होंने महाराज से एक संकेत किया। महाराज सन्यासी को अभिवादन कर घोड़े पर चढ़े। एक घोड़े पर युवक चढ़ा, और धीरे-धीरे वे उस पर्वत-शृङ्ग से उतर चले । सन्यासी शिला-खण्ड की भाँति अचल रहकर उन्हें देखते रहे, जब तक कि वे आँख से ओझल नहीं हो गए। १० तानाजी मलुसरे पिछले परिच्छेद में जिस युवक की चर्चा है, वही तानाजी मलूसरे थे। यह वही युवक था जिससे मुमूर्षावस्था में शिवाजी का प्रथम परिच्छेद २४
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