बादशाह ने भी हँसकर पूछा-"शिवा की शादी हुई या नहीं ?" "जी हां, पूना में इसका व्याह हुआ है ।" "लेकिन उसने मां-बदौलत को अपना बाप कहा है । बस, उसकी एक शादी हमारे हुजूर में होगी और हम खुद वाप की सब रसम अदा करेंगे। लड़की की तलाश करो।" शाहजी ने मुककर बादशाह को सलाम किया और कहा- "हुक्म तामील होगा।" और दरवार से चले आए। शिवाजी ने डेरे पर लौटकर स्नान किया। वीजापुर में शिवा का दूसरा विवाह बड़ी धूमधाम से हुआ । बादशाह आदिलशाह ने खुद सव अमीर-उमराव के साथ शरीक होकर सब नेग भुगताए। शाहजी ने भी वादशाह की खूब आवभगत की। नया ब्याह कर शिवाजी शीघ्र ही पूना लौट आए। परन्तु दरवार में अपने पिता की शाह के सामने दासता देख उनका जी दुख से भर गया। वे खिन्न रहने लगे। दादा कोंगादेव बड़े अच्छे मुत्सद्दी और राजनीति-विचक्षरण पुरुप थे। उन्होंने शिवाजी में महापुरुषों के लक्षण देख लिए थे। वे कहा करते थे हमारा शिवा शिव का साक्षात् अवतार है और भवानी का वरद पुत्र है । उन्होंने उन्हें राज्य प्रबन्ध, धर्मशास्त्र, युद्ध-कौशल की बहुत अच्छी शिक्षा दी। उनके ही अध्यवसाय से इलाके की आय और आवादी बढ़ गई थी। वे बीच-बीच में शिवाजी को नीति, धर्म और रियासत के काम की भी शिक्षा देते थे। इस इलाके में मावली लोगों की वस्ती थी जो दरिद्र किन्तु वीर होते थे। दादा ने उन्हें अनुशासन की शिक्षा दी थी। बहुत-सी जमीन देकर उन्हें मेहनती कृषक बनाया था। उन दिनों मरहठों में लिखने-पढ़ने का रिवाज विलकुल न था, पर दादा ने शिवाजी की रुचि पढ़ने-लिखने में देखी। घुड़सवारी, तीर, नेजा, तलवार चलाने तथा मल्लयुद्ध में शिवाजी इसी उम्र में चाक-चौबन्द हो गए थे।
पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/१६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।